Saturday, October 28, 2017

जेल में जश्न!

जेल हुआ तो क्या हुआ, आखिर इंदौर में है. और मेहमाननवाजी इंदौर के कण-कण में बसी हुई है. तो अपने मेहमानों की आवभगत में जेल कोई कसर कैसे छोड़ सकता था? मेहमानों को तरह-तरह के भरपेट खाने और नाश्ते नहीं कराता तो इंदौर की इज़्ज़त मिट्टी में नहीं मिल जाती? जेल एक बुरा मेजबान साबित नहीं हो जाता? जेल कतई नहीं चाहता था कि ऐसा हो.

तो वह जुट गया अतिथियों की खातिरदारी में. उसने अपने आदमियों से साफ़-साफ़ कह दिया: सुबह की चाय, फिर नाश्ता, फिर दोपहर का भोजन, फिर शाम की चाय और उसके बाद रात का खाना सारा स्वादिष्ट हो, सबको प्यार से परोसा जाए, सबकी पसंद-नापसंद का ठीक से ख़याल रखा जाए, फल, सब्ज़ियाँ, मेवे -मिठाइयाँ, अचार, पापड़, चटनी किसी में कोई कमी नहीं रहनी चाहिए. सुबह चाय के साथ मीठे और नमकीन बिस्किट, नाश्ते में सेंव-पोहा-जलेबी, दोपहर के भोजन में तीन तरह की सब्ज़ियाँ, दाल, पूड़ी, पुलाव, रायता, सलाद, और मीठा, शाम की चाय के साथ कभी भजिये, कभी कचोरी-समोसा, कभी हॉट डॉग, कभी पेटिस, कभी आलू की टिकिया, कभी भुट्टे का कीस, कभी साबूदाने की खिचड़ी जैसा कुछ चटपटा, और रात के खाने में कढ़ी चावल, पराठे-सब्ज़ी जैसा कुछ हल्का-फुल्का तो कम-से-कम होना ही चाहिए. साथ ही मौसम के हिसाब से गराडू, गाजर का हलवा, दाल-बाफले-लड्डू, आम का रस, लस्सी, शिकंजी, कुल्फी, गुड़ की गजक, आइस क्रीम जैसी ख़ास चीज़ों को भी शामिल किया जाना चाहिए. आखिर दूर-दराज़ से इंदौर आए हुए लोगों को बुरा नहीं लगना चाहिए कि वे जेल में बंद हैं और सराफ़ा और छप्पन जैसी जगहों पर जाकर इन सारी चीज़ों का लुत्फ़ नहीं उठा सकते.

जेल के रसोइये कमर कस कर जेल के आदेशों पर अमल करने लगे. रसोईघर से सुबह-दोपहर-शाम खुशबू के झोंके आते, मसाले पीसे जाते, सब्ज़ियों-दालों में हींग के छौंक लगते, कोथमीर और हरी मिर्च की चटनी पीसी जाती, नींबू निचोड़े जाते, शुद्ध घी में जलेबियाँ तली जातीं और बड़े-बड़े कड़ाहों में दूध उबाला जाता. इतने प्यार और दुलार से मेहमान खुश न होते तो क्या होते? अपने मेजबान की दिलदारी से भावविभोर हो कर वह बेचारे सोच में पड़ जाते कि क्या खाएँ और क्या न खाएँ. कई बार तो उन्हें मजबूरी में इसलिए खाना पड़ता कि जेल बुरा न मान जाए. यदि खाना बच जाता, तो जेल बहुत दुखी हो जाता था. उसने अपने मेहमानों के लिए पान, सुपारी, पाचक चूर्ण, और हरड़े आदि की भी व्यवस्था कर रखी थी. इसलिए पेट भर कर खाने के सिवाय मेहमानों के सामने दूसरा कोई रास्ता न था.

धीरे-धीरे उन्हें इस सबकी आदत पड़ गई. और वे तरह-तरह के खाने खाने में माहिर हो गए. यह बात और है कि उनका वज़न दिन दूना रात चौगुना बढ़ने लगा. कपड़े छोटे पड़ने लगे. लेकिन मेजबान की ख़ुशी और इंदौर की शान के लिए क्या वह इतना भी नहीं कर सकते थे?

-----

यह लेख इस रिपोर्ट पर आधारित एक हल्का-फुल्का व्यंग्य है. कृपया इसे अन्यथा न लें.

2 comments:

  1. लता जी,
    आपके इस ब्लॉग लेखन से उसकी दुकान तो चल पड़ेगी.
    ☺☺

    ReplyDelete
  2. नारायण जोशी29 October, 2017 16:15

    अलग अंदाज मे लिखा हुआ ब्लॉग बहोत अच्छा लगा।

    ReplyDelete