Tuesday, February 19, 2019

एक याद पुलवामा की


कुछ पाँच साल पहले की बात है. मैं कश्मीर गई थी. श्रीनगर से पहलगाम जाते समय हमारी बस पुलवामा ज़िले में पम्पोर के पास गाँव लेथपुरा से गुज़री थी. मैं एक यात्री समूह के साथ थी. टूर गाइड ने हमारी बस लेथपुरा स्थित सूखे मेवे और मसालों की एक दुकान के पास रुकवाई थी ताकि यात्री वहाँ से अपनी पसंद का सामान खरीद सकें. दुकान कई तरह के मेवों और मसालों से भरी थी और मेरे साथी खरीदारी कर रहे थे. बाहर एक छोटा स्टॉल था जिसमें स्वादिष्ट कहवा बिक रहा था. कश्मीरी दुकानदार सभी का स्वागत कर रहे थे, और हम लोग भी कश्मीर की सौगातों का आनंद उठा रहे थे.

यह इलाका केसर की खेती के लिए मशहूर है. मैं दुकान में टहल रही थी और अचानक मेरी नज़र पीछे की तरफ स्थित ज़मीन के बड़े-से टुकड़े की तरफ गई. मैं उत्सुकतावश उस तरफ बढ़ी. दुकान के स्टाफ का एक व्यक्ति मेरे साथ चलने लगा और उसने मुझे बताया कि यह खाली जगह दरअसल केसर का खेत है. इस वक़्त जून का महीना था इसलिए फ़सल नहीं थी. "सितम्बर में आएँ, आपको यह खेत केसर के फूलों से ढँका हुआ मिलेगा", उसने कहा.

दुकान से निकलकर हमारी बस प्राचीन अवंतीस्वामी मंदिर में रुकी थी, जो श्रीनगर से ३० किलोमीटर दूर स्थित एक वैष्णव मंदिर है. झेलम के किनारे बने, पहाड़ों से घिरे इस सुन्दर मंदिर को देखने अक्सर पर्यटक आते रहते हैं. मनभावन उद्यान और हरे-भरे वृक्षों-पौधों से सजा मंदिर का अहाता देखकर हम सब बहुत खुश हुए थे. मंदिर की सुंदरता को मन में भरकर और उसकी छवियों को अपने-अपने कैमरों में क़ैद कर हम लोग पहलगाम की तरफ बढ़े थे.

सभी छायाचित्र : लता 

१४ फ़रवरी २०१९. श्रीनगर से ३० किलोमीटर दूर गाँव लेथपुरा, ज़िला पुलवामा सुर्ख़ियों में है. अपनी ख़ूबसूरती, केसर के खेतों, मेवों-मसालों या मंदिर के लिए नहीं, बल्कि अपनी ज़मीन पर बहे ४० जवानों के ख़ून के कारण. जैसे-जैसे सैनिकों के काफ़िले पर विस्फोटकों से लदे वाहन द्वारा आत्मघाती हमले की घटना का विवरण देख, सुन और पढ़ रही हूँ, मन बार-बार अपनी यात्रा के दौरान उस जगह पर समेटी खुशनुमा यादों की ओर लौटता है, और वहाँ हुए भीषण रक्तपात की कल्पना कर विषण्ण हो जाता है.

उस दिन सुबह साढ़े तीन बजे जब जम्मू से बसों का काफ़िला चला था, तब क्या रहा होगा उन जवानों के मन में? अपने परिवार के साथ बिताई छुट्टियों की यादें, अवकाश के बाद तरोताज़ा होकर फिर ड्युटी पर जाने की ललक, और न जाने क्या-क्या. भारत के विभिन्न राज्यों से आए, अलग-अलग भाषाएँ बोलने वाले ये जवान एक साथ अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ रहे थे; मानो हर बस में एक छोटा भारत समाया हो. सबका लक्ष्य एक ही था--अपनी मातृभूमि की रक्षा. कोई अपने बुजुर्ग माता-पिता को पीछे छोड़कर आया था तो कोई अपनी नई-नवेली दुल्हन को. किसीने अपने छोटे-छोटे बच्चों से रूँधे गले से विदा ली थी, तो किसीने जल्द वापस आने का वादा किया था. किसीकी अटैची में घरवालों ने अपने हाथ से बनाकर दिए खाने के सामान की खुशबू थी, तो किसीके दिल में अपने प्रियजनों की स्मृतियों का खज़ाना.

और बस के बाहर प्रकृति के सौंदर्य की कई छटाएँ. सुबह सर्द मौसम और अँधेरा रहा होगा. शायद कोहरा भी. लेकिन धीरे-धीरे सूरज की किरणों ने आसपास की सुंदरता को अपने प्रकाश में नहला दिया होगा. बस की खिड़की से बाहर का दृश्य देखकर कितने उल्लसित हुए होंगे सारे जवान! जैसे-जैसे श्रीनगर क़रीब आने लगा होगा, हवा और सर्द हुई होगी. कुछ ही समय बाद शाम होगी और सूर्यास्त के बाद घाटी में अंधकार होगा, अगली सुबह के सूर्योदय तक. लेकिन तभी एक धमाका हुआ और ४० ज़िंदगियाँ हमेशा के लिए अस्त हो गईं. इन ४० ज़िन्दगियों की अपनी-अपनी कहानियाँ थीं. अपने घरों-गाँवों से निकलकर यहाँ तक पहुँचने के संघर्ष की कहानी, भारत के लिए प्यार और जज़्बे की कहानी, परिवारजनों के त्याग की कहानी.

इस घटना के बाद सारा देश दुःख, क्षोभ और क्रोध के आवेग में डूब गया. भिन्न-भिन्न तरीकों से विरोध प्रकट करने के आवाहन सोशल मीडिया पर आने लगे. किसीने मोमबत्ती जलाई, तो किसीने काले या सफ़ेद वस्त्र पहने. उजड़े परिवारों की क्षति तो कभी भी पूर्ण नहीं हो सकती. लेकिन जवानों के बलिदान को व्यर्थ न जाने देने के लिए हम सामान्य नागरिक भी एक काम ज़रूर कर सकते हैं. हम ऐसे भारतीय बनें जिनके लिए लड़ने में सैनिक को फ़ख्र महसूस हो.

यह लेख इंदौर से प्रकाशित दैनिक प्रजातंत्र में आज १९ फ़रवरी २०१९ को प्रकाशित हुआ है. 

5 comments:

  1. Lata,
    Beautiful write-up on Pulwama.
    You have expressed the brighter side as well as darker side very nicely.

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  2. प्रजातंत्र में पूरा लेख नहीं है

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    1. This comment has been removed by the author.

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    2. धन्यवाद प्रकाशजी. प्रजातंत्र में प्रकाशित लेख और उसके बाद मैंने अपने ब्लॉग पर पोस्ट किए लेख में कोई अंतर नहीं है.

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