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Wednesday, April 9, 2025

यादों के पिटारे से: बहू -बेटी की मौत से पुण्य कमाने वाले समाज से कुछ सवाल

 मेरा यह लेख २७ सितम्बर, १९८७ के नवभारत टाइम्स में रविवार्ता के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित हुआ था. 

अठारह वर्षीया रूपकँवर दुल्हन के वेश में कितनी सुंदर लग रही थी! सिर से पैर तक गहनों से लदी, नखशिखांत श्रृंगार के साथ. लेकिन वह विवाह की वेदी पर नहीं, अपने पति की चिता पर चढ़ने जा रही थी--उसके साथ जलकर भस्म होने के लिए. 

राजस्थान के सीकर जिले के दिवराला गाँव में अभी आठ महीने पहले ही तो रूपकँवर दुल्हन बनकर आई थी. अपने पिता के घर से भरपूर दहेज के साथ. २५ तोला सोना, टेलीविजन, रेडियो, पंखे, फ्रिज... क्या नहीं लाई थी वह अपने साथ! एक सुखी गृहस्थी का सपना आँखों में लिए रूपकँवर ने अपने पति मानसिंह के घर में कदम रखा था. ज़िंदगी अपनी तरह चल रही थी कि अचानक सितम्बर की पहली तारीख़ को मानसिंह को उल्टी -दस्त होने लगे. उसे सीकर के सरकारी अस्पताल में दाखिल कराया गया. लेकिन चार सितम्बर का दिन उसकी ज़िंदगी का आख़री दिन रहा. मानसिंह की मृत्यु के साथ ही रूपकँवर ने सती होने की इच्छा व्यक्त की. उसके परिवारवालों ने न तो इसका विरोध किया और न ही इसकी ख़बर किसीको होने दी. 

आज... यदि प्रधानमंत्री के घिसे-पिटे मुहावरे का उपयोग किया जाए तो... जब देश २१वीं सदी में प्रवेश करने को तैयार है तब रूपकँवर द्वारा सदियों पुरानी इस प्रथा का पालन करना कई सवाल खड़े करता है. एक तो यह कि दसवें दर्जे तक पढ़ी रूपकँवर को पति की मृत्यु के बाद सती होने के अलावा और कोई रास्ता क्यों नज़र नहीं आया? दूसरे यह कि उसकी ससुरालवालों ने इसका विरोध क्यों नहीं किया? --इस संदर्भ में कहीं यह दहेज हत्या का दूसरा रूप तो नहीं, या क्या उसकी ससुरालवाले इतने अंधविश्वासी हैं कि बहू की मौत में ही उन्हें अपना पुण्य नज़र आया; या बहू के सती होने में उन्हें अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाने का आसान रास्ता दिख गया? तीसरे यह कि क्या प्रशासन और क़ानून पूरी तरह से अंधे-बहरे हो गए हैं जो रूपकँवर को सती होने से रोक नहीं सके? (पुलिस द्वारा कुछ महिलाओं को सती होने से रोकने की ख़बरें पहले मिली हैं लेकिन यहाँ पुलिस का कहना है कि उन्हें कोई सूचना ही नहीं मिली) और चौथा सवाल उन हज़ारों -हज़ार लोगों को लेकर है जो रूपकँवर का सती होना एक तमाशे की तरह देखते रहे, लेकिन उसे रोकने के लिए कुछ नहीं कर सके. 

इन सवालों के स्पष्ट जवाब शायद कभी न मिल पाएँ लेकिन इनका उठना निरर्थक नहीं है. इनके जवाब ढूँढ़ने की कोशिश की जाए तो आधुनिकता का दंभ भरनेवाले समाज का वह बदबूदार पिछवाड़ा दिखता है जो हर तरह की गंदगी से पटा पड़ा है और जिसे साफ़ करना कोई नहीं चाहता. 

हो सकता है, विधवा की कलंकित ज़िंदगी जीना रूपकँवर को रास न आता नज़र आया हो और उसने अपने ज़िंदगी का अंत कर लेने में ही अपनी भलाई समझी हो. रूपकँवर के मामले में बात करते हुए सीकर जिले के ही एक ग्रामीण ने कहा, 'हमारे समाज में विधवा को कुलच्छनी माना जाता है. उसे नंगे पैर चलना पड़ता है, ज़मीन पर सोना पड़ता है. वह घर से बाहर नहीं निकल सकती और किसी पुरुष से बात भी नहीं कर सकती. ऐसी ज़िंदगी जीने से तो अच्छा हुआ वह मर ही गई.'

रूपकँवर के पिता भी कोई अनपढ़, गँवार ग्रामीण नहीं हैं. जयपुर में उनकी एक ट्रांसपोर्ट एजेंसी है. लेकिन अपनी बेटी के सती होने पर वह कहते हैं, 'रूपकँवर के त्याग ने हमारे दोनों ख़ानदानों को अमर बना दिया है. मेरी बेटी तो अब 'देवी' बन गई है जिसकी हज़ारों श्रद्धालु पूजा करेंगे.' वह प्रसन्न हैं कि उनकी बेटी ने उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाई है. 

जब सती हो गई महिला के परिवारवाले, उसकी ससुरालवालों के साथ उसके पिता भी अपनी बेटी के बलिदान को लेकर इतने प्रसन्न हैं, तो इस घटना के लिए क़ानून और प्रशासन को दोष देने से पहले एक बार सोचना पड़ता है. अदालत का क़ानून और सरकार का निर्देश जनता के लिए क्या मायने रखता है, यह तो उसी समय पता चल गया कि जब सती के १३ दिनों बाद होने वाले चूंदड़ी महोत्सव को सरकारी आदेश की धज्जियाँ उड़ाते हुए किसी त्योहार की-सी धूमधाम से मनाया गया. राजस्थान के कुछ महिला संगठनों की अपील पर राजस्थान उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को निर्देश दिया था कि रूपकँवर की चूंदड़ी चढ़ाने की रस्म पर समारोह न होने दिया जाए. इसके बावजूद लाखों लोगों की मौजूदगी में रूपकँवर की चिता पर सुहाग की प्रतीक चूंदड़ी चढ़ाई गई. यह चूंदड़ी चार हज़ार एक सौ रूपए की बताई जाती है और इसे रूपकँवर के मायकेवाले लाए थे. इस समारोह का तय समय से दो घंटे पहले ही हो जाना, समारोह के दौरान सती-स्थल पर पुलिस की गैर-मौजूदगी, समारोह स्थल पर गाँव के स्वयंसेवकों का हुक्म और राजपूत नौजवानों का चिता के आसपास नंगी तलवारें लिए लगातार परिक्रमा करना यह बताता है कि जिस बात को आम आदमी का जबरदस्त समर्थन हो, उसे रोकना क़ानून और सरकार के बस की बात नहीं।

लेकिन इस बात को आम आदमी का इतना जबरदस्त समर्थन मिलने के क्या कारण हो सकते हैं? इसका जवाब ढूँढ़ने के लिए हमें उन मान्यताओं, विश्वासों, अंधविश्वासों की पड़ताल करनी होगी जो सदियों से हमारे यहाँ बच्चों को घुट्टी में पिलाए जाते हैं. हमारे यहाँ मृत्यु को जीवन का अंत न मानकर मोक्ष प्राप्त करने की ओर बढ़ाया गया एक कदम माना जाता है. यहाँ महिलाएँ साल-दर-साल एक विशेष दिन व्रत रखती हैं कि अगले जन्म में भी उन्हें यही पति मिले. यहाँ यह माना गया है कि मृत्यु के बाद की दुनिया में भी व्यक्ति को वही सब मिले जो इस जन्म में उसे सुख-शांति देता रहा है. पति के साथ जल मरने को पतिव्रत्य का महानतम उदाहरण माना गया. इन 'अलौकिक' कारणों के साथ कुछ लौकिक कारण भी समय-समय पर इससे जुड़ते गए जैसे कि घर-परिवार में विधवा के साथ होनेवाले व्यवहार को देखकर कुछ महिलाओं ने सती होने का निर्णय किया हो या जैसे मुग़लों के भय से, आत्मसम्मान की रक्षा की ख़ातिर राजपूत महिलाओं ने जौहर (सामूहिक सती) किया. 

इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि सती एक सामाजिक मान्यता है. हमारे यहाँ के किसी शास्त्र में इस प्रथा का उल्लेख नहीं है. ऋग्वेद और अथर्ववेद में ज़रूर ऐसी प्रथा के संकेत मिलते हैं. गरुड़पुराण और भागवतपुराण में भी सती का उल्लेख है. लेकिन हर घर में सती प्रथा का पालन होता था, ऐसा नहीं है. बल्कि समय-समय पर इसे रोकने की कोशिश भी होती रही. अकबर और जहांगीर ने सती प्रथा को दबाया. फिर आगे चलकर अंतिम पेशवा बाजीराव और मराठा महारानी अहिल्याबाई ने भी लोगों में सती प्रथा के खिलाफ जागरूकता फैलाई. अंत में राजा राममोहन राय के प्रयासों के फलस्वरूप लॉर्ड विलियम बेंटिंक ने सन १८२९ में सती प्रथा पर निषेध लगा दिया. 

लेकिन एक बात ग़ौर करने लायक है --सती प्रथा को सिर्फ़ हिन्दू मान्यताओं ने ही जन्म दिया हो--ऐसा नहीं है. एशिया के अलावा अमेरिका, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया में भी मृत व्यक्ति के साथ उसकी पत्नी/पत्नियाँ, ग़ुलाम, क़ैदी और घोड़े जलाए या दफ़नाए जाते थे. लेकिन भारत में इसे जैसा सामाजिक समर्थन मिला, उसके चलते निषेध लगने के १५८ साल बाद आज भी सती हो जाने के इक्का-दुक्का उदाहरण मिल ही जाते हैं. 

इसी सिलसिले में रूपकँवर का सती होना हमें फिर एक बार अपनी सामाजिक व्यवस्था को जाँचने के लिए कहता है--ऐसी व्यवस्था जहाँ अभी यह माना जाता है कि पति के बाद पत्नी का कोई स्थान नहीं है--न परिवार में, न समाज में. जब तक यह मान्यता नहीं बदलती, तब तक कोई विधवा चाहे घुट-घुटकर जीने को मजबूर की जाए, चाहे पति के साथ जलकर मर जाए--शायद कोई फ़र्क नहीं पड़ता. 

Monday, April 7, 2025

"यादों के पिटारे से: 'मेरा चुनाव लोगों ने ही लड़ा'---सुमित्राजी

भारतीय जनता पार्टी की वरिष्ठ नेता सुमित्रा महाजन २०१४ से २०१९ तक लोकसभा की स्पीकर रहीं. वह  १९८९ से २०१९ तक लगातार इंदौर लोकसभा क्षेत्र से भाजपा की प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीतीं. उनकी छवि एक कुशल और साफ़-सुथरी नेता की रही है. मुझे १९८९ में दिल्ली में उनसे मिलने का और बातचीत करने का मौक़ा मिला. उस समय उन्हें पहली बार सांसद बनकर कुछ महीने ही हुए थे. वह एक आम मध्यवर्गीय मराठीभाषी महिला की तरह बहुत सादगी से मुझसे मिलीं. उनकी सादगी वरिष्ठ नेता बनने के बाद भी क़ायम रही.सुमित्राजी इंदौर में 'ताई' के नाम से लोकप्रिय हैं. आज यदि मैं उनके बारे में लिखती तो उन्हें ताई ही कहती.  २४ दिसंबर १९८९ के नवभारत टाइम्स में स्तम्भ 'नए चेहरे' के अंतर्गत मेरी उनके साथ की गई बातचीत प्रकाशित हुई थी. आज उसीको अपने ब्लॉग पर संजो कर रख रही हूँ. 

इंदौर से भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर लोकसभा के लिए चुनी गईं सुमित्रा महाजन के बारे में सबसे पहली बात तो यह कि उन्होंने करीब चार साल तक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री और केंद्र सरकार में एक समय गृह, रेल और पेट्रोलियम एवं रसायन जैसे विभागों के मंत्री रह चुके कांग्रेसी दिग्गज प्रकाशचंद सेठी को हराया है. करीब तीन साल पहले दिल्ली से बम्बई बात कर रहे श्री सेठी का फोन अचानक कट जाने पर उनके आधी रात किदवई भवन ट्रंक एक्सचेंज पहुँचने, वहाँ गाली-गलौज करने, पिस्तौल निकाल लेने और ड्यूटी पर तैनात महिला कर्मचारियों के साथ दुर्व्यवहार करने की ख़बरें उस वक़्त सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से छपी थीं. खबर यह भी थी कि श्री सेठी मानसिक असंतुलन के शिकार हैं. ट्रंक एक्सचेंज वाली घटना की तरह कुछ और घटनाएँ भी हुईं जिन्होंने मानो उनके मानसिक असंतुलन वाली बात की पुष्टि कर दी. 

पिछले कुछ दिनों में सेठीजी ख़बरों में नहीं के बराबर थे तो लगा कि वे राजनीति के वानप्रस्थ काल में पहुँच गए हैं. ऐसे व्यक्ति को इंदौर से टिकट देकर कहीं कांग्रेस ने स्वयं ही इंदौर में अपनी हार को न्यौता तो नहीं दिया था? इस सवाल के जवाब में सुमित्राजी कहती हैं: 'नहीं, नहीं. सेठीजी जीत भी सकते थे. हो सकता है मेरी बजाय कोई और उनका सामना करता तो जीत ही जाते. यूँ जीत के प्रति आश्वस्त तो कोई नहीं होता... मैं भी नहीं थी. आख़िर सेठीजी इससे पहले जीतते ही तो आए हैं.'

जीत के प्रति आश्वस्त होना तो दूर, सुमित्राजी बताती हैं कि लोकसभा चुनाव लड़ने का उनका कोई ख़ास इरादा भी नहीं था. लेकिन पार्टी की इच्छा थी इसलिए वह चुनावी मैदान में उतरीं. उनकी उम्मीदवारी की ख़बर सुनकर कई लोगों के मन में यह सवाल आया और कुछ ने तो उनसे पूछा भी कि सेठीजी चुनाव पर जितना खर्च कर सकते हैं उसका मुक़ाबला न तो आप कर सकती हैं, न ही आपकी पार्टी. फिर उनका सामना आप कैसे करेंगी? सुमित्राजी का जवाब होता था--आप देखिए, लोग मुझे वोट भी देंगे और नोट भी देंगे. और यही हुआ भी. लोग आते और सुमित्राजी से कहते: सुमित्रा ताई ( दीदी के लिए मराठी शब्द), हमारे घर में दस वोट हैं, ये लीजिए दस रूपए.' तो एक तरह से मेरा चुनाव लोगों ने ही लड़ा. युवाओं ने, महिलाओं ने मेरे लिए बहुत काम किया.' सुमित्राजी अपने कार्यकर्ताओं के प्रति अभिभूत होकर बताती हैं. 

वैसे अपनी पार्टी और उसके उम्मीदवारों के लिए सुमित्राजी भी काफ़ी काम करती रही हैं. इमर्जेंसी के बाद १९७७ में जब कुछ लोगों ने जेल के भीतर से ही चुनाव लड़ा तब सुमित्राजी उनके समर्थन में बहुत सक्रिय रहीं. १९८५ के विधानसभा चुनाव में सुमित्राजी ने पहली बार अपनी क़िस्मत आजमाई लेकिन उस समय उन्हें हराकर कांग्रेस के महेश जोशी विधायक बने. 

सुमित्राजी विधायक नहीं बन सकीं लेकिन वह एक अर्से से इंदौर में धार्मिक और सामाजिक प्रवचनकार के रूप में जानी जाती रही हैं. धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या करने की उनकी रोचक और रसपूर्ण शैली इंदौर के मध्यवर्गीय मराठीभाषी परिवारों में काफ़ी लोकप्रिय है. यही मध्यवर्गीय मराठीभाषी परिवार इंदौर के मतदाताओं का काफ़ी बड़ा हिस्सा बनाते हैं. इनके बीच सुमित्राजी की छवि एक ऐसी साफ़-सुथरी मध्यवर्गीय गृहिणी की है, जो राजनीति की कालिख और गंदगी से बहुत दूर है. ' लेकिन मैं राजनीति में हूँ और अपनी जीत के बाद अब दावे से कह सकती हूँ कि राजनीति में अभी भी साफ़-सुथरे लोगों के लिए जगह है, और यह भी कि सिर्फ़ पैसे के बल पर ही चुनाव नहीं जीते जाते. '

सुमित्राजी लोकसभा में इंदौर का प्रतिनिधित्व करेंगी, लेकिन वह मूलतः इंदौर की नहीं हैं. इंदौर इनकी ससुराल है और शादी के बाद पिछले २४ वर्षों से वे इंदौर में रह रही हैं. महाराष्ट्र के एक कस्बे चिपलूण में पली-बढ़ीं सुमित्राजी ने मैट्रिक तक की पढ़ाई चिपलूण में ही की. फ़िर बम्बई आ गईं. माता-पिता की मृत्यु बहुत जल्दी हो गई थी. शादी के बाद अपने पति और परिवार की मदद से सुमित्राजी ने बी. ए. की शिक्षा पूर्ण की. मनोविज्ञान में एम. ए. किया, एल. एल. बी. भी किया. इसी बीच वह दो बेटों की माँ बनीं. अपने बेटों की परवरिश और परिवार की जिम्मेदारी के साथ-साथ शहर के सांस्कृतिक, सामाजिक, साहित्यिक परिवेश में सक्रिय रहीं और अब जब बेटे बड़े हो गए हैं( बड़ा बेटा इंजीनियर है और छोटा बी. एस-सी. के दूसरे साल में है) तब सुमित्राजी देश के सर्वोच्च सदन में इंदौर का प्रतिनिधित्व कर रही हैं. 

सुमित्राजी प्रदेश महिला मोर्चा की महामंत्री हैं. साथ ही बाल संरक्षण गृह, अनाथालय, महिला सुधार गृह जैसी संस्थाओं की समिति की सदस्या हैं. पिछले दिनों इन्होंने अहिल्या मातृशक्ति संवर्धन केंद्र का गठन किया है जहाँ पीड़ित महिलाओं को कानूनी सहायता दी जाएगी. तलाक़ के मामले, दहेज़ के मामले आदि भी सुलझाए जाएँगे। कामकाजी औरतों के बच्चों के लिए झूलाघर शुरू किया है. वैसे तलाक़ के मामलों में सुमित्राजी अपने पति (जो कि वकील हैं) की भी सहायता करती रही हैं. उनकी कोशिश रहती है कि कोर्ट में जाने से पहले ही किसी तरह मामला सुलझ जाए. 

इंदौर के करीब देवास और पीथमपुर में कई उद्योगों के खुलने से इंदौर प्रदेश का सबसे बड़ा औद्योगिक क्षेत्र हो गया है, लेकिन उस हिसाब से वहाँ विकास उतना नहीं हुआ है जितना होना चाहिए. पानी की समस्या यहाँ की एक बड़ी समस्या है. सुमित्राजी नर्मदा योजना का दूसरा चरण शीघ्र पूरा कराने का प्रयास करेंगी. शहर की आबादी और वाहनों की संख्या के अनुपात में वहाँ की सड़कें बहुत सँकरी हैं. इस समस्या का समाधान शहर के बाहरी किनारों पर रिंग रोड बनवा कर किया जा सकेगा.

एक समय अपने कपड़ा उद्योग के लिए प्रसिद्ध इंदौर की कई मिलें बीमार पड़ी हैं जिसके कारण बेरोज़गारी बढ़ी है. सुमित्राजी की कोशिश रहेगी कि इन बीमार मिलों को शुरू कराया जाए. आसपास के गाँवों तक पक्की सड़कें नहीं तो कम-से-कम पहुँच-मार्ग बनें. सुमित्राजी का मानना है कि जब सांसद और विधायक साथ मिलकर काम करेंगे, तब ही अपने क्षेत्र के लिए कुछ ठोस उपलब्धियाँ हासिल कर पाएँगे.

सुमित्राजी काफ़ी आशावान हैं. १९६७ और १९७७ को छोड़कर हमेशा कांग्रेसी उम्मीदवार को लोकसभा भेजनेवाले इंदौर ने पहली बार भारतीय जनता पार्टी की प्रत्याशी को दिल्ली भेजा है. १९६७ में सिटीजन्स फोरम के होमी दाजी (अब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में) और १९७७ में जनता पार्टी के कल्याण जैन (अब जनता दल में) इंदौर से निर्वाचित हुए थे. अब यदि इंदौर की जनता ने इस ४६-वर्षीया 'गृहिणी' को करीब एक लाख १२ हजार मतों से जिताया है तो इसी उम्मीद के साथ कि वह उनकी घरों को, उनके नगर को अपने कुशल हाथों से सँवारेंगी. 

Friday, April 4, 2025

यादों के पिटारे से: आधुनिक बालाओं को पुरातनी सीख

मेरा यह लेख १२ नवम्बर, १९९२ के नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुआ था. इसमें लिखी कुछ बातें शायद आज के माहौल में विसंगत लगें, लेकिन यह तीन दशक अधिक से पहले लिखा गया था और इसलिए इसे उसी परिप्रेक्ष्य में पढ़ा जाना चाहिए. अपने पुराने लेखों को अपने ब्लॉग पर संजो कर रखने की मेरी कोशिश की अगली कड़ी है यह पोस्ट: 

महिलाओं की एक अंग्रेज़ी पत्रिका के सितम्बर अंक में टीनएज (१३ से १९ वर्ष की उम्रवाली) लड़कियों को एक अनमोल सलाह दी गई है. एक पन्ने के इस लेख में बताया गया है कि किस तरह लड़कियाँ अपने बॉयफ्रेंड को किसी दूसरी लड़की की ओर आकर्षित होने से रोक सकती हैं. इससे पहले कि इस लेख पर कोई टिप्पणी की जाए, ज़रा पढ़ लीजिए कि यह लेख आख़िर कहता क्या है--

"लड़कियों, लड़के आख़िर लड़के ही हैं. आपका बॉयफ्रेंड भी अपने यार-दोस्तों के साथ कुछ समय बिताना चाहेगा. उसे इतनी आज़ादी दीजिए कि वह रात में अपने दोस्तों के साथ घूमने जा सके, वीडियो गेम खेल सके या चाहे तो 'ब्लू फिल्म' भी देख सके. उसे कुछ समय अपनी तरह से बिताने दीजिए. आख़िर आप भी तो चाहेंगी कि आप कुछ समय अपनी सखियों के साथ गुज़ारें और ऐसे काम करें जो लड़कियाँ आम तौर पर करती हैं, जैसे अपने लिए कपड़े या जूते खरीदना. लड़के तो शॉपिंग से नफ़रत करते हैं, इसलिए आप यह काम अपनी सखियों के साथ कर लें. 

"जब आप अपने बॉयफ्रेंड के साथ बाहर जाती हैं तो ग़ौर कीजिए कि आपकी कौनसी बात उसे अच्छी लगती है, आपके कौनसे कपडे, आपकी लिपस्टिक का कौनसा शेड उसे पसंद है. उसके साथ बाहर जाते वक़्त उसीकी पसंद के अनुरूप श्रृंगार कीजिए. कुछ लड़के तो आपके लिपग्लॉस का स्वाद या गंध भी पसंद करेंगे. यदि आपके बॉयफ्रेंड को जींस पसंद हैं और वह चाहता है कि आप जींस पहनें, वह आपको तुरंत बता देगा. यदि आपकी स्कर्ट का लंबापन या छोटापन उसे अखरता है तो वह ज़रूर आपसे कहेगा. 

"अपने बॉयफ्रेंड के साथ जब आप किसी पार्टी में जाएँ तो जोंक की तरह उससे चिपटी न रहें. इससे आप 'पज़ेसिव' कहलाई जाएँगी. उसे अपनी पसंद की अन्य लड़कियों के साथ 'डांस' करने दें और आप भी अन्य लड़कों के साथ नाचें. बस, पार्टी का आख़िरी डांस यदि वह आपके साथ करे तो वही काफ़ी है. 

"आपका बॉयफ्रेंड तयशुदा वक़्त पर न आए या आने में उसे कुछ देर हो जाए तो तनिक भी नाराज़ न होइए. आख़िर वह भी एक इंसान है और इंसान गलतियाँ करता है. हो सकता है कि वह आपके पास आने के लिए तैयार हो रहा था कि उसी वक़्त उसकी जींस या पैंट का ज़िपर टूट गया और उसे दूसरे कपड़ों को इस्त्री करनी पड़ गई, जिसकी वजह से उसे आने में देरी हो गई. वह यह सब आपसे नहीं कहेगा, क्योंकि इसे वह अपनी मर्दाना शान के ख़िलाफ़ मानता है. 

"अपने बॉयफ्रेंड को उसकी सिगरेट पीने की आदत को लेकर परेशान न करें. यदि ऐसा करेंगी तो वह आपको छोड़कर किसी और से दोस्ती कर लेगा. जब आपका जन्मदिन आनेवाला हो तो धीरे से उससे कहिए, 'मेरे जन्मदिन का सबसे बढ़िया तोहफ़ा यही होगा कि मैं जिसे चाहती हूँ, वह सिगरेट पीना छोड़ दे.' अपने बॉयफ्रेंड की दाढ़ी या लम्बे बालों के बारे में भी यही नुस्ख़ा आज़मा सकती हैं. "

ऊपर-ऊपर से आधुनिक लगनेवाला यह लेख क्या लड़कियों को दक़ियानूसी बातें सिखाता-सा नहीं लगता?आख़िर वह यही तो कह रहा है कि अपने बॉयफ्रेंड के हर तरह के व्यवहार को सहें, संयम रखें. उससे कुछ कहना भी हो तो इस तरह से कहें कि वह नाराज़ न हो जाए. हाँ, उसकी पसंद का ख़्याल ज़रूर रखें और उसीकी पसंद के अनुरूप कपडे पहनें. यदि ऐसा न करेंगी तो वह आपको छोड़कर किसी और से दोस्ती कर लेगा. क्या यह सलाह उसी सीख की तर्ज़ पर नहीं है जो हमारे यहाँ लड़कियों को आम तौर पर बचपन से ही दी जाती है--जैसे शादी के बाद पति की हर इच्छा पूरी करो, वह चाहे कुछ भी कर ले, उफ़ तक न करो, उसीकी पसंद से पहनो-ओढ़ो, उसीकी पसंद का खाना पकाओ, उसकी कुछ बातें चाहें अच्छी न लगें, उन्हें नजरअंदाज कर जाओ, पतिव्रता बनी रहो--एक आदर्श पत्नी का यही धर्म है. 

और मज़े की बात तो यह है कि अपने आपको आधुनिक बतानेवाली, बम्बई जैसे महानगर से अँग्रेज़ी में प्रकाशित होनेवाली, उच्च और उच्च मध्यवर्गीय शिक्षित परिवारों में पढ़ी जानेवाली एक पत्रिका इस तरह की सामग्री परोस रही है. 

जहाँ यह पत्रिका यह मानकर चल रही है कि किशोरियों का बॉयफ्रेंड तो होना ही चाहिए, वहीं वह किशोरियों के मन में असुरक्षा की यह भावना भी पैदा कर रही है कि बॉयफ्रेंड को संभाल कर रखो वर्ना वह तुम्हें छोड़कर किसी और का हो जाएगा. 

यदि लड़कियों को पश्चिमी आधुनिकता से ही वाक़िफ़ कराना है तो उन्हें बताइए कि पश्चिमी लड़की का रवैया क्या होता है. पश्चिमी लड़की अपने निजत्व पर अपने बॉयफ्रेंड की पसंद को इतना हावी कभी भी नहीं होने देगी कि बस, बॉयफ्रेंड की रुचि के अनुसार ही सजे-धजे. इससे पहले कि उसका बॉयफ्रेंड उसे छोड़कर किसी और से दोस्ती कर ले, वह खुद ही बॉयफ्रेंड को छोड़ देगी. जहाँ पति-पत्नी का एक-दूसरे से सम्बन्ध-विच्छेद आम है, वहाँ बॉयफ्रेंड को छोड़ना कौनसी बड़ी बात है? ऐसा नहीं है कि रिश्तों की टूटन से उन्हें दुःख नहीं होता, लेकिन वहाँ इस तरह की बातों को ज़िंदगी का एक हिस्सा मानकर स्वीकार कर लिया गया है. 

लड़कियों को दब -झुक कर चलने की दक़ियानूसी सीख को आधुनिकता का चमचमाता मुलम्मा चढ़ाकर पेश करने की बजाय क्या यह अच्छा नहीं होगा कि लड़कियों को घर-परिवार और समाज में अपने अधिकारों के प्रति सजग किया जाए और बॉयफ्रेंड की चिंता छोड़ अपने लिए एक सच्चा मित्र तलाश करने की प्रेरणा दी जाए जो हो सकता है आगे जाकर जीवनसाथी बन जाए?

Tuesday, March 25, 2025

यादों के पिटारे से: मंगलसूत्र, बिंदिया और सिंदूर के बहाने

मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स के ५ जुलाई १९८९ के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ था. ज़ाहिर है, इसमें जिन सामाजिक परिस्थितियों का उल्लेख हुआ है, उनमें और आज के हालात में काफ़ी अंतर है. इसलिए इसे उसी परिप्रेक्ष्य में पढ़ा जाना चाहिए. अपने पुराने लेखों को अपने ब्लॉग पर संजो कर रखने के मेरे प्रयास की अगली कड़ी:


किसी पुरुष को देखकर क्या आप जान सकते हैं कि वह विवाहित है या नहीं? नहीं, क्योंकि विवाह के बाद पुरुष के रहन-सहन में या पहनावे में कोई अंतर नहीं आता. लेकिन विवाह के बाद महिला कई तरह के "सौभाग्यसूचक" चिन्हों से लाद दी जाती है. मसलन गले में मंगलसूत्र, कलाइयों में चूड़ियाँ, माथे पर बिंदिया, मॉंग में सिंदूर, पैरों में बिछिया-पायल आदि. पति की मृत्यु के बाद औरत के लिए इन चीज़ों का इस्तेमाल वर्ज्य हो जाता है. जबकि पत्नी की मृत्यु के बाद किसी पुरुष पर इस तरह का कोई प्रतिबंध नहीं लगता. 

हो सकता है कि कुछ महिलाएँ शौक से इन "सौभाग्यसूचक" चिन्हों का इस्तेमाल करती हों, तो कुछ सुन्दर और आकर्षक दिखने के लिए इनका सहारा लेती हों. कुछ यह सोचकर इन्हें अपनाती होंगी कि जब उनकी माँ, सास, नानी, दादी सभी ने यह किया है, तो उन्हें भी यही करना है. कुछ महिलाएँ समाज के डर से या इस डर से कि उन्होंने "सौभाग्यसूचक" चिन्ह नहीं पहने तो उनके पति का अनिष्ट होगा, इन्हें अपनाती होंगी. लेकिन इन सबसे हटकर जो औरतें इनकी अनिवार्यता के बारे में सवाल उठाती हैं, या इन्हें पहनने से इनकार करती हैं, वे आलोचना का शिकार बनती हैं. 

ऐसा नहीं है कि माथे पर बिंदिया लगाने से या गले में मंगलसूत्र पहनने से औरत को बड़ी भारी असुविधा होती हो. लेकिन उसे सोचने का मौका दिए बगैर, जब ये चीज़ें उस पर थोंप दी जाती हैं और उससे अपेक्षा की जाती है कि वह इन्हें दिन-रात, सोते-जागते अपने से अलग न करे, तो  ज़रूर कुछ असुविधा होती है. 

इस अनिवार्यता में से सवाल उठता है कि समाज में औरत की पहचान क्या सिर्फ़ अपने पति की वजह से होती है. यानी पति जीवित है तो पत्नी इन सौभाग्यसूचक अलंकरणों से सजी-धजी गुड़िया है और पति नहीं है तो इन सबसे विहीन बैरागिनी? इसी सिलसिले में एक घटना याद आ रही है. एक बुज़ुर्ग की ७५वीं वर्षगाँठ उनके बेटों-बहुओं ने बड़े ठाठ-बाठ से मनाई. इन बुज़ुर्ग की पत्नी को गुज़रे कई वर्ष हो चुके हैं. वर्षगाँठ के सिलसिले में कुछ धार्मिक रस्में अदा की गईं. इसके लिए एक पंडितजी बुलाए गए. जब इन बुज़ुर्ग ने पंडितजी के सामने अपना स्थान ग्रहण किया तो पंडितजी ने कहा, "श्रीमान, रस्म शुरू करने से पहले अपनी श्रीमतीजी को भी तो बुलाइए." इस पर वह बुज़ुर्ग जितने दुःखी और विचलित हुए वह तो सबने देखा. लेकिन शायद ही किसीने यह सोचा होगा कि ऐसी हालत में इनकी पत्नी यहाँ होती तो पंडितजी उन्हें अपने पति को बुलाने का आदेश नहीं देते क्योंकि उनकी वेषभूषा ही बता देती कि वह विधवा है.

महाराष्ट्र में किसी भी मुबारक़ मौक़े पर सौभाग्यवती महिलाएँ एक-दूसरे के माथे पर कुंकुम लगाती हैं. तीज-त्योहारों पर महिलाएँ अन्य सौभाग्यवती महिलाओं को अपने घर आमंत्रित करती हैं और तब भी कुंकुम का आदान-प्रदान होता है. दक्षिण भारत में भी ऐसी परम्परा है. पुराने ज़माने में जब औरतें घर से बाहर आती-जाती नहीं थीं, तब ऐसे मौक़ों के बहाने घर से बाहर निकलकर एक-दूसरे से मिल-जुल लेती थीं. लेकिन विधवाओं को ऐसे मौक़ों पर नहीं बुलाया जाता था और आज भी नहीं बुलाया जाता. बस, यही बात इस प्रथा की सारी अच्छाइयों पर पानी फेर देती है. क्या विधवाओं को अपनी हमउम्र स्त्रियों से मिलने-जुलने की या धार्मिक, सामाजिक आयोजनों में हिस्सा लेकर अपना मन बहलाने की ज़रूरत महसूस नहीं होती? पर ऐसे मौक़ों पर अलग रखकर उन्हें मानो बार-बार इस बात की याद दिलाई जाती है कि उनके पति जीवित नहीं हैं. इस तरह यदि उनके घावों पर लगातार नमक छिड़का जाता रहे तो वे अपने पति की मृत्यु के दुःख से कैसे उबर सकती हैं?

इसीलिए मंगलसूत्र पहनना या माँग में सिंदूर भरना बुरा नहीं है. बुरी हैं तो उनके साथ जुड़ी वे तमाम मान्यताएँ जो पति के जीवित या मृत होने के आधार पर औरत-औरत के बीच फ़र्क करती हैं. बुरे हैं तो वे प्रचलित विश्वास कि सौभाग्यसूचक चिन्ह धारण न करना अशुभ या अमंगल है. बुरी है तो वह आलोचना जिसकी शिकार अपनी इच्छा से सौभाग्यसूचक चिन्हों का त्याग करनेवाली सौभाग्यवती महिलाएँ होती हैं. 

औरत को औरत की तरह ही देखा जाना ज़रूरी है. पति के होने न होने से औरत की ओर देखने के नज़रिए में अंतर क्यों आना चाहिए? विधवाओं के केश काट देने की प्रथा जैसे धीरे-धीरे खत्म हुई है उसी तरह पति के जीवित रहते पत्नी द्वारा सौभाग्यसूचक चिन्हों के उपयोग और पति के मरने पर पत्नी द्वारा उन चिन्हों के त्याग को एक अनिवार्यता न बनाकर क्यों न इसे हर स्त्री की इच्छा पर छोड़ दिया जाए?

Friday, March 21, 2025

यादों के पिटारे से : एक भारत महोत्सव, भारत में भी हो

हाल ही में फिल्म "इमर्जेंसी " देखते हुए पर्दे पर कई बार पुपुल जयकर के क़िरदार से आमना-सामना हुआ. आज की पीढ़ी के कई लोग उनसे वाक़िफ़ नहीं होंगे. वह इंदिरा गाँधी की बचपन की मित्र तो थीं ही, प्रधान मंत्री बनने के बाद भी इंदिरा गाँधी का उनके साथ बहुत निकट का नाता था. फिल्म के दौरान मुझे उस बातचीत की याद आई जो मैंने दिल्ली में पुपुल जयकर के साथ की थी, और जो इंटरव्यू की शक्ल में ९ जून, १९८५ के नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुई थी. मैं उस समय नवभारत टाइम्स में बतौर उप-संपादक काम करती थी. अब वह दुनिया बहुत पीछे छूट चुकी है, लेकिन अख़बार के पीले पड़ चुके पन्नों पर अपने लेख आज भी मेरे पास सुरक्षित हैं. कुछ पन्ने जर्जर हो गए हैं. सोचा, क्यों न अपनी इन यादों को अपने ब्लॉग पर सहेज कर रखूँ.  तो यह है उसी कोशिश की पहली कड़ी, यानी पूरा इंटरव्यू जस का तस: 

पहला भारत महोत्सव लंदन में १९८२ में आयोजित हुआ था. उसकी परिकल्पना और संयोजन में श्रीमती पुपुल जयकर ने प्रमुख भूमिका निभाई थी. फ़्रांस और अमेरिका में हो रहे भारत महोत्सव में भी उनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण है--वह भारत महोत्सव की सलाहकार समिति की अध्यक्ष हैं. श्रीमती जयकर लम्बे समय से हस्तकला और हथकरघा की दुनिया से जुड़ी हुई हैं और इससे सम्बद्ध महत्त्वपूर्ण पदों पर काम करती रही हैं. उन पर कृष्णमूर्ति के दर्शन का गहरा असर है. ७० बरस पहले उत्तर प्रदेश के इटावा में जन्मी श्रीमती जयकर आज भी अपने काम में सक्रिय हैं.

फ़्रांस और अमेरिका में हो रहे भारत महोत्सव को लेकर कुछ सवालों के साथ मैंने उनके निवास, ११ सफ़दरजंग रोड पर उनसे बातचीत की. बातचीत शुरू करने से पहले ही उन्होंने साफ़-साफ़ कहा--" तुम जो पूछना चाहो, बेहिचक पूछो. कोई भी सवाल मुझे बुरा नहीं लगेगा." वे आराम से, बड़ी तसल्ली के साथ, मुस्कुराते हुए बातचीत करती हैं और हिंदी के बजाय अंगेज़ी में बात करना उन्हें ज़्यादा आसान लगता है. बातचीत के कुछ अंश:

भारत महोत्सव के उपलक्ष्य में १९८५ में जारी डाक टिकट 

भारत महोत्सव का उद्देश्य विदेश में भारत की छवि पेश करना है. लेकिन कैसी छवि?

हम विदेशियों के सामने भारत की वास्तविक तस्वीर प्रस्तुत करना चाहते हैं. हम इसी की भरसक कोशिश कर रहे हैं. कई क्षेत्रों के लोग इसमें हिस्सा लेने जा रहे हैं. इससे वहाँ के लोग जानेंगे कि हमारा संगीत कैसा है, हमारा रंगमंच कैसा है, हमारा नृत्य कैसा है, प्रदर्शनकारी कलाएँ कैसी हैं... 

लेकिन यह सब तो एक आम भारतीय आदमी तक भी नहीं पहुँचता. उसे अच्छा संगीत सुनने या अच्छा नाटक, नृत्य देखने का मौका ही कहाँ मिलता है ?

यह बिलकुल सही है कि उसे मौका नहीं मिलता. मैं खुद काफ़ी अरसे से यह कोशिश कर रही हूँ  कि एक भारत महोत्सव भारत में ही किया जाए, जिससे हमारे लोग, हमारे युवा, हमारे बच्चे हमारी महान सांस्कृतिक परम्परा के बारे में जानें, उसे उसके सही रूप में देख पाएँ. मैंने सरकार के सामने यह सुझाव रखा भी है. 

इस तरह के महोत्सव के आयोजन में क्या ऐसा नहीं लगता कि हम अपनी "संस्कृति" को डिब्बाबंद किसी चीज़ की तरह बाहर भेज रहे हैं?

तो इसका और कौन-सा तरीका हो सकता है?

विदेश से विभिन्न क्षेत्रों के जाने-माने लोगों को यहाँ भी तो बुलाया जा सकता है. वे अपनी तरह से भारत को देखेंगे और अपने देश लौटकर उसके बारे में लोगों को बताएँगे. या फ़िर पर्यटकों को ज़्यादा सुविधाएँ , सस्ते हवाई टिकट दिए जा सकते हैं. 

पर्यटक सुविधाएँ नहीं चाहते. वर्ना भारत के दरवाज़े तो हमेशा खुले रहे हैं. पर्यटक किसी भी वक़्त आ सकते थे. लेकिन उनके दिमाग़ के सांस्कृतिक दायरे में भारत की कोई जगह थी ही नहीं. पर हम जानते हैं कि हमारी सांस्कृतिक परम्परा जितनी प्राचीन है, उतनी ही महान भी. इसीलिए भारत की नई प्रगतिशील तस्वीर के साथ दुनिया के सामने उसकी प्राचीन परम्पराओं की तस्वीर पेश करना हमारी ज़िम्मेदारी है. 

और किसी देश ने तो अपनी संस्कृति के प्रदर्शन का ऐसा कोई आयोजन किसी अन्य देश में नहीं किया?

नहीं, इतना बड़ा सांस्कृतिक आयोजन पहले कभी कहीं नहीं हुआ. 

यह महोत्सव इतना लम्बा क्यों है? सुना है अमेरिका में १८ महीने  चलेगा.

मुख्य कार्यक्रम तो करीब इस दिसम्बर तक ख़त्म हो जाएँगे। फ़िर ४०-५० अलग-अलग प्रदर्शनियाँ अमेरिका के ६० - ७० शहरों का दौरा करेंगी. यह काफ़ी दिनों तक चलता रहेगा. फ़िर समापन समारोह के वक़्त एक और बड़ा आयोजन हो सकता है. यदि हमें विदेशियों को हमारा देश दिखाना ही है, तो पूरी शान के साथ दिखाना चाहिए, वर्ना ऐसे आयोजन का कोई मतलब नहीं है.

लंदन में भारत महोत्सव हुए काफ़ी अर्सा हो गया. उसका कोई साफ़-साफ़ प्रभाव नज़र आता है?

बिलकुल! वहाँ भारत की पृष्ठभूमि पर अचानक इतनी सारी फिल्में बनीं. महोत्सव ने वहाँ भारत के बारे में सोई भावनाओं को लोगों के मन में फ़िर से जगा दिया. 

वहाँ रहने वाले भारतीयों के साथ अंग्रेज़ों के बर्ताव में क्या कोई सुधार हुआ है? क्या वे भारतीयों की ओर एक अलग नज़रिये से देख पाते हैं?

देखो, यह तो राजनीतिक सवाल है. भारतीयों के प्रति अंग्रेज़ों के रवैये के बारे में मैं कोई टिप्पणी करना नहीं चाहती.


आप पिछले दिनों अमेरिका में थीं. वहाँ के लोग कितने उत्सुक हैं इस महोत्सव को लेकर?

बहुत! वहाँ अख़बारों -पत्रिकाओं में भारत के बारे में खूब छप रहा है. "नॅशनल जियोग्राफ़िक " भारत पर आठ फीचर तैयार कर रहा है. लोग अचानक भारत के बारे में जानना चाहते हैं. यह सब जो भारत को मिला है, वह तो लाखों डॉलर के बदले भी नहीं खरीदा जा सकता था. 

इस समारोह में हिस्सा लेने जा रहे और न जा रहे कलाकारों को लेकर पिछले दिनों काफ़ी विवाद खड़ा हुआ था?

हज़ारों कलाकार हैं हमारे देश में. ज़ाहिर है हर कलाकार नहीं जा सकता. यह सम्भव ही नहीं है. चयन समिति में अलग-अलग क्षेत्रों के लोग हैं. फ़िर हमें सिर्फ़ दिल्ली या बम्बई के ही कलाकारों को नहीं लेना है, मणिपुर और असम और मद्रास से भी कलाकार आएँ तभी तो भारत का सच्चा प्रतिनिधित्व हो सकेगा. अब इस सब में कुछ लोगों का नाराज़ होना तो बिलकुल स्वाभाविक है. 

यह इतना बड़ा आयोजन है. इसकी तैयारी तो काफ़ी समय से चल रही होगी. लेकिन इसके बारे में लोगों को अभी कुछ दिन पहले ही पता चला है...

हाँ, पिछला एक वर्ष हमारे देश के लिए बड़ा दुःखद रहा. और ऐसे समय उत्सवों की बातें नहीं की जाती हैं. फ़िर  ३१ अक्तूबर के बाद तीन महीनों तक मेरे दिमाग़ में महोत्सव का ख्याल तक नहीं आ सका. यह तो वाक़ई एक जादुई करिश्मा ही कहिए कि हम निर्धारित समय पर इस महोत्सव का आयोजन कर पा रहे हैं. 

इसके लिए होने वाले खर्च का क्या हिसाब है?

कलाकारों की हवाई यात्रा और कलाकृतियों, वाद्यों आदि को वहाँ ले जाने की ज़िम्मेदारी हमारी है. वहाँ हमारा सारा खर्च वे ही लोग यानी फ़्रांस और अमेरिका की सरकार उठाएगी.

भारत महोत्सव के लिए इतना खर्च उठाने में अमेरिका या फ़्रांस की क्या दिलचस्पी हो सकती है?

शायद वे भारत से और ज़्यादा दोस्ती करना चाहते हैं. 

क्या महोत्सव के दौरान भारतीय चीज़ें, जैसे कपड़े या हस्तकला की अन्य वस्तुएँ बेची जाएँगी ?

नहीं, महोत्सव तो व्यावसायिक नहीं है लेकिन हथकरघा और हस्तकला निर्यात निगम कुछ चीज़ें बेच रहा है. फ़िर अमेरिका की एक बहुत बड़ी व्यावसायिक श्रृंखला, "ब्लूमिंगडेल्स" अपनी १९ दुकानों में भारतीय सामान बेचेगी. और भी कई दुकानों में ये चीज़ें बिकेंगी. तो इस तरह से २० से ३० करोड़ रुपए तो सीधे इस बिक्री से ही मिल सकते हैं. औद्योगिक क्षेत्र में अमेरिका भारत से सहयोग करेगा, यह उम्मीद भी है. 

महोत्सव में प्रदर्शन के लिए कई अनमोल कलाकृतियाँ बाहर भेजी गई हैं. उनकी सुरक्षा को लेकर आप चिंतित नहीं हैं?

चिंतित होने का सवाल ही नहीं उठता. पहले भी हम ऐसी वस्तुओं को विदेश भेज चुके हैं. और उन्हें विदेश भेजने पर किसी को क्या ऐतराज़ हो सकता है. खतरा तो कोई चीज़ मद्रास से दिल्ली भेजने में भी है. और फ़िर जिन संग्रहालयों में हमारी कलाकृतियाँ जा रही हैं, वे दुनिया के श्रेष्ठ संग्रहालयों में से हैं. मैं आपको यक़ीन दिला सकती हूँ कि वहाँ इनकी पूरी हिफ़ाज़त होगी.

मैं चिंतित हूँ तो हमारे ही देश में कलाकृतियों, प्राचीन मूर्तियों, पुरातन भवनों और स्मारकों की सुरक्षा को लेकर. ये सब अनमोल हैं और देश में जहाँ-तहाँ बिखरे पड़े हैं लेकिन उनकी क़द्र नहीं की जा रही. लोग पुराने भवन देखने जाते हैं तो उनकी दीवारों पर अपने नाम लिख देते हैं. पुरानी मूर्तियों की अक़्सर चोरियाँ होती रहती हैं. 

देश में सांस्कृतिक मूल्य की प्राचीन वस्तुओं की सुरक्षा और रख-रखाव के उद्देश्य से हमने एक ट्रस्ट बनाया है--"इंडियन नॅशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एण्ड कल्चरल हेरिटेज". हमारी सांस्कृतिक परम्परा की रक्षा करना बहुत ज़रूरी है. यह परम्परा सिर्फ़ कलाकृतियों में ही नहीं होती, हमारे आचार-व्यवहार, हमारे रहन-सहन, हमारे मूल्यों में होती है. इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि अपने बच्चों के लिए इसे सहेजकर रखें, उन्हें यह सब सिखाएँ.

एक और बात बता दूँ. जनता शासन के दौरान एक प्रदर्शनी फ़्रांस गई थी. और आज जो कुछ लोग इस महोत्सव को लेकर सवाल उठा रहे हैं, वे उस वक़्त उस प्रदर्शनी से जुड़े भी थे. 

इस महोत्सव के दौरान यह भी तो हो सकता है कि हमारी बेजोड़ कलाकृतियों की प्रतिकृतियाँ बना ली जाएँ ?

जब हम अपनी कलाकृतियाँ स्मिथसोनियन और मेट्रोपोलिटन म्यूज़ियम ऑफ़ आर्ट में प्रदर्शन के लिए भेजते हैं, तो हमें इस तरह के सवाल नहीं पूछने चाहिए. फ़िर हमारी कलाकृतियों की प्रतिकृतियाँ बनाना कोई आसान काम थोड़े ही है. 

क्या इस तरह का कोई आयोजन दूसरे ग़रीब देशों में किए जाने की कोई योजना है--यानी लातीनी अमेरिकी या अफ़्रीकी देशों में?

यह तय करने का काम तो सरकार का ही है. 

Thursday, May 21, 2020

इंतज़ार है...

चित्र:लता 

अब भी रोज़ सुबह क्षितिज पर वह हाज़री लगाता होगा
कभी सिंदूरी, कभी नारंगी, तो कभी सुनहरा पीला
तुम उसके स्वागत में कभी उछलते होगे, कभी मचलते होगे
तो कभी रूठे हुए बच्चे की तरह गुमसुम रहते होगे
अब भी तुम्हारी लहरें दौड़-दौड़कर किनारे को चूमती होंगी
मटमैली रेत तुम्हारे दूधिया झाग से लगातार सराबोर होती होगी
आसमान में उन्मुक्त पंछी अठखेलियाँ करते, गाते होंगे
नटखट बादल रूप बदल-बदल कर फ़लक पर छाते होंगे


कभी तुम्हारी लहरों पर नौकाओं में मछुआरे हिलोरें लिया करते थे
और तट पर सैर करनेवाले तेज़-तेज़ चला करते थे 
कोई मित्रों के साथ होता, तो कोई बिलकुल अकेला
कोई मुँड़ेर पर सुस्ताता, तो कोई बिना रुके ही चला
कोई अपने कैमरे में तस्वीर क़ैद करता
कभी सामने तुम होते, तो कभी उसकी प्रेमिका
तुमसे उठती ठंडी बयार से तरोताज़ा होकर हम
दिन की शुरुआत किया करते थे एकदम खुश-फ़हम


लेकिन अब तो उसके आने की ख़बर तब होती है
जब खिड़की पर गुनगुनी धूप दस्तक देती है
सूना पड़ा होगा तुम्हारा तट
और सूनी हैं गलियाँ
घर से बाहर निकलने पर
जो लग गई हैं पाबंदियाँ
इंतज़ार है फ़िर से तुम्हें देखने का
और तुम्हारे नित-नए रूप के साथ हर दिन का आग़ाज़ करने का

Thursday, September 26, 2019

छोटे पर्दे पर बड़े ख़्वाब!

हाल ही में "कौन बनेगा करोड़पति" (केबीसी) में हिस्सा लेनेवाली दो प्रतियोगियों ने बहुत प्रभावित किया. संयोग की बात है कि दोनों महिलाएँ थीं. पहली, बबिता ताड़े महाराष्ट्र के अमरावती के निकट एक कस्बे अंजनगाँव सुर्जी से हैं. बहुत ही हँसमुख, सौम्य व्यक्तित्ववाली बबिता एक सरकारी स्कूल में ४५० विद्यार्थियों के लिए दोपहर का भोजन बनाती हैं. उनके पति उसी स्कूल में चपरासी हैं. एक ख़ानसामा की बेटी बबिता अपनी स्वादिष्ट खिचड़ी के लिए बच्चों में ख़ासी लोकप्रिय हैं. घर की ज़िम्मेदारी में हाथ बँटाने के लिए उन्हें अपनी स्नातकोत्तर शिक्षा अधूरी ही छोड़नी पड़ी, लेकिन चूँकि पढ़ाई-लिखाई में उनकी दिलचस्पी है, जैसे मौका मिलता है वैसे वह किताबें,अख़बार आदि पढ़ लेती हैं. सामान्य ज्ञान की इसी पूँजी के सहारे वह केबीसी में शामिल होने आई थीं.

वैसे तो अमिताभ बच्चन अपने सामने बैठे हर प्रतियोगी को सहज बनाने की पूरी कोशिश करते हैं, लेकिन फ़िर भी उनके जैसे महानायक का सामना करना आसान नहीं. बबिता न सिर्फ़ अपनी सादगी और शालीनता के साथ हॉट सीट पर टिकी रहीं, उन्होंने सारे सवालों के जवाब धैर्य और सूझबूझ के साथ दिए, और एक करोड़ रुपए जीत गईं.  एक करोड़ की रकम जीतने में सामान्य ज्ञान के साथ उनके संयत व्यवहार और सकारात्मक विचार का भी बहुत बड़ा योगदान रहा होगा. उन्होंने अपनी ज़िंदगी की मुश्किलों को बयान तो किया, लेकिन उनका रोना नहीं रोया.

कार्यक्रम के बीच अमिताभ बच्चन अक्सर पूछते हैं कि जीती हुई रकम का आप क्या करेंगे. बबिता की चाहत सिर्फ़ एक मोबाईल फ़ोन की थी. एक करोड़ जीतने के बाद जब बच्चन साहब ने उनसे कहा कि अब तो आपको काम करने की कोई ज़रुरत नहीं है, तो उनका जवाब था कि काम तो वह करती रहेंगी क्योंकि उन्हें अपने काम से प्यार है. निश्चय ही इस महिला ने एक करोड़ के साथ-साथ दर्शकों का मन भी जीत लिया होगा. न उनमें अपनी आर्थिक स्थिति को लेकर कोई हीन भावना दिखी, और न ही अपने काम को लेकर किसी कमतरी का अहसास. अपने काम के प्रति समर्पण की भावना और स्कूल के बच्चों के प्रति उनके स्नेह को देखकर दर्शकों को भी उनकी सकारात्मकता ने छू लिया.

माना कि इतने बड़े रियलिटी शो में शिरकत करने वालों को कैमरे के सामने पेश करने से पहले कई तरह की सूचनाएँ दी जाती होंगी, उनकी छवि को तराशा जाता होगा, और जनता के सामने प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत होने के लिए उन्हें कुछ गुर सिखाए जाते होंगे. बावजूद इसके बबिता की स्वाभाविक सादगी छुप न सकी. साथ ही अमिताभ बच्चन आज जिस मक़ाम पर हैं, वहाँ से उनका आम जनता के साथ उठना-बैठना, सभी प्रतियोगियों के साथ आदरपूर्ण और मित्रवत व्यवहार, हँसी-मज़ाक करना, और सुपरस्टार की छवि के बोझ से मुक्त होकर सबके साथ सामान्य आचरण करना आदि इस शो को महज प्रश्नोत्तरी का कार्यक्रम नहीं, आपसी संवाद को रेखांकित करती एक मानवीय गतिविधि बना देते है.

इसी सन्दर्भ में जिनका ज़िक्र किया जा सकता है ऐसी दूसरी महिला हैं रूमा देवी. यह विशेष कार्यक्रम कर्मवीर में अतिथि बनकर आई थीं. राजस्थान के बाड़मेर ज़िले की रहनेवाली रूमा देवी को हस्तकला के क्षेत्र में उत्कृष्ट काम करने के लिए इस वर्ष राष्ट्रपति ने "नारी शक्ति पुरस्कार" से नवाज़ा है. टीवी के पर्दे पर इनकी उपस्थिति बेहद दिलकश और ऊर्जावान थी. पारम्परिक राजस्थानी पोशाक में सजीं रूमा देवी ने खुलेपन और आत्मविश्वास के साथ अपनी कहानी सुनाई. वह महज आठवीं कक्षा तक स्कूल गईं. कम उम्र में शादी होने के बाद धन के अभाव में अपने छोटे बच्चे का इलाज नहीं करा पाईं और उसे खो दिया. घूँघट की प्रथा का आदर करते हुए उन्होंने अपनी दादी से सीखा हुआ कशीदाकारी का काम घर से ही शुरू किया और धीरे-धीरे अपने जैसी कई महिलाओं को अपने साथ जोड़कर उन्हें भी रोज़गार दिलाया. आज २२ हज़ार महिलाएँ उनके साथ कार्यरत हैं. उनके बनाए वस्त्र और अन्य सामान जैसे टेबल कवर, कुशन कवर आदि की भारत में और विदेश में भी बहुत माँग है. 

रूमा देवी ने अपने काम के सिलसिले में विदेश दौरे भी किए हैं, और व्यावसायिक मॉडेल्स के साथ फैशन शो में रैम्प वॉक भी. केबीसी के विशेष कार्यक्रम के दौरान वह लगातार मुस्कुरा रही थीं और बेबाकी से ठहाके भी लगा रही थीं. अतिथि के रूप में उनका साथ देने आई थीं अभिनेत्री सोनाक्षी सिन्हा. सोनाक्षी के ग्लैमर और चमक-दमक के सामने रूमा देवी कहीं भी कम नहीं लग रही थीं, बल्कि महज ३० वर्ष की उम्र में हासिल की उपलब्धियों की रोशनी में उनका आकर्षक व्यक्तित्व और भी निखर उठा था. उन्होंने १२ लाख ५० हज़ार की रकम जीती और उसे अपने साथ काम करती महिलाओं के उत्थान के लिए इस्तेमाल करने की इच्छा जताई.

गाँव की मिट्टी की खुशबू अपने साथ लेकर आईं बबिता और रूमा देवी की कहानियाँ प्रेरणादायी तो हैं ही, साथ ही यह दूर-दराज क्षेत्रों में बसे उन अनगिनत लोगों को सपने देखने की हिम्मत देती हैं जो अपनी मेहनत, कौशल और विश्वास के बूते पर अपने आपको साबित करने के लिए प्रयत्नरत हैं. 

यह लेख इन्दौर से प्रकाशित दैनिक "प्रजातंत्र" में आज २६ सितम्बर २०१९ के अंक में प्रकाशित हुआ है. 

Tuesday, February 19, 2019

एक याद पुलवामा की


कुछ पाँच साल पहले की बात है. मैं कश्मीर गई थी. श्रीनगर से पहलगाम जाते समय हमारी बस पुलवामा ज़िले में पम्पोर के पास गाँव लेथपुरा से गुज़री थी. मैं एक यात्री समूह के साथ थी. टूर गाइड ने हमारी बस लेथपुरा स्थित सूखे मेवे और मसालों की एक दुकान के पास रुकवाई थी ताकि यात्री वहाँ से अपनी पसंद का सामान खरीद सकें. दुकान कई तरह के मेवों और मसालों से भरी थी और मेरे साथी खरीदारी कर रहे थे. बाहर एक छोटा स्टॉल था जिसमें स्वादिष्ट कहवा बिक रहा था. कश्मीरी दुकानदार सभी का स्वागत कर रहे थे, और हम लोग भी कश्मीर की सौगातों का आनंद उठा रहे थे.

यह इलाका केसर की खेती के लिए मशहूर है. मैं दुकान में टहल रही थी और अचानक मेरी नज़र पीछे की तरफ स्थित ज़मीन के बड़े-से टुकड़े की तरफ गई. मैं उत्सुकतावश उस तरफ बढ़ी. दुकान के स्टाफ का एक व्यक्ति मेरे साथ चलने लगा और उसने मुझे बताया कि यह खाली जगह दरअसल केसर का खेत है. इस वक़्त जून का महीना था इसलिए फ़सल नहीं थी. "सितम्बर में आएँ, आपको यह खेत केसर के फूलों से ढँका हुआ मिलेगा", उसने कहा.

दुकान से निकलकर हमारी बस प्राचीन अवंतीस्वामी मंदिर में रुकी थी, जो श्रीनगर से ३० किलोमीटर दूर स्थित एक वैष्णव मंदिर है. झेलम के किनारे बने, पहाड़ों से घिरे इस सुन्दर मंदिर को देखने अक्सर पर्यटक आते रहते हैं. मनभावन उद्यान और हरे-भरे वृक्षों-पौधों से सजा मंदिर का अहाता देखकर हम सब बहुत खुश हुए थे. मंदिर की सुंदरता को मन में भरकर और उसकी छवियों को अपने-अपने कैमरों में क़ैद कर हम लोग पहलगाम की तरफ बढ़े थे.

सभी छायाचित्र : लता 

१४ फ़रवरी २०१९. श्रीनगर से ३० किलोमीटर दूर गाँव लेथपुरा, ज़िला पुलवामा सुर्ख़ियों में है. अपनी ख़ूबसूरती, केसर के खेतों, मेवों-मसालों या मंदिर के लिए नहीं, बल्कि अपनी ज़मीन पर बहे ४० जवानों के ख़ून के कारण. जैसे-जैसे सैनिकों के काफ़िले पर विस्फोटकों से लदे वाहन द्वारा आत्मघाती हमले की घटना का विवरण देख, सुन और पढ़ रही हूँ, मन बार-बार अपनी यात्रा के दौरान उस जगह पर समेटी खुशनुमा यादों की ओर लौटता है, और वहाँ हुए भीषण रक्तपात की कल्पना कर विषण्ण हो जाता है.

उस दिन सुबह साढ़े तीन बजे जब जम्मू से बसों का काफ़िला चला था, तब क्या रहा होगा उन जवानों के मन में? अपने परिवार के साथ बिताई छुट्टियों की यादें, अवकाश के बाद तरोताज़ा होकर फिर ड्युटी पर जाने की ललक, और न जाने क्या-क्या. भारत के विभिन्न राज्यों से आए, अलग-अलग भाषाएँ बोलने वाले ये जवान एक साथ अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ रहे थे; मानो हर बस में एक छोटा भारत समाया हो. सबका लक्ष्य एक ही था--अपनी मातृभूमि की रक्षा. कोई अपने बुजुर्ग माता-पिता को पीछे छोड़कर आया था तो कोई अपनी नई-नवेली दुल्हन को. किसीने अपने छोटे-छोटे बच्चों से रूँधे गले से विदा ली थी, तो किसीने जल्द वापस आने का वादा किया था. किसीकी अटैची में घरवालों ने अपने हाथ से बनाकर दिए खाने के सामान की खुशबू थी, तो किसीके दिल में अपने प्रियजनों की स्मृतियों का खज़ाना.

और बस के बाहर प्रकृति के सौंदर्य की कई छटाएँ. सुबह सर्द मौसम और अँधेरा रहा होगा. शायद कोहरा भी. लेकिन धीरे-धीरे सूरज की किरणों ने आसपास की सुंदरता को अपने प्रकाश में नहला दिया होगा. बस की खिड़की से बाहर का दृश्य देखकर कितने उल्लसित हुए होंगे सारे जवान! जैसे-जैसे श्रीनगर क़रीब आने लगा होगा, हवा और सर्द हुई होगी. कुछ ही समय बाद शाम होगी और सूर्यास्त के बाद घाटी में अंधकार होगा, अगली सुबह के सूर्योदय तक. लेकिन तभी एक धमाका हुआ और ४० ज़िंदगियाँ हमेशा के लिए अस्त हो गईं. इन ४० ज़िन्दगियों की अपनी-अपनी कहानियाँ थीं. अपने घरों-गाँवों से निकलकर यहाँ तक पहुँचने के संघर्ष की कहानी, भारत के लिए प्यार और जज़्बे की कहानी, परिवारजनों के त्याग की कहानी.

इस घटना के बाद सारा देश दुःख, क्षोभ और क्रोध के आवेग में डूब गया. भिन्न-भिन्न तरीकों से विरोध प्रकट करने के आवाहन सोशल मीडिया पर आने लगे. किसीने मोमबत्ती जलाई, तो किसीने काले या सफ़ेद वस्त्र पहने. उजड़े परिवारों की क्षति तो कभी भी पूर्ण नहीं हो सकती. लेकिन जवानों के बलिदान को व्यर्थ न जाने देने के लिए हम सामान्य नागरिक भी एक काम ज़रूर कर सकते हैं. हम ऐसे भारतीय बनें जिनके लिए लड़ने में सैनिक को फ़ख्र महसूस हो.

यह लेख इंदौर से प्रकाशित दैनिक प्रजातंत्र में आज १९ फ़रवरी २०१९ को प्रकाशित हुआ है. 

Saturday, October 28, 2017

जेल में जश्न!

जेल हुआ तो क्या हुआ, आखिर इंदौर में है. और मेहमाननवाजी इंदौर के कण-कण में बसी हुई है. तो अपने मेहमानों की आवभगत में जेल कोई कसर कैसे छोड़ सकता था? मेहमानों को तरह-तरह के भरपेट खाने और नाश्ते नहीं कराता तो इंदौर की इज़्ज़त मिट्टी में नहीं मिल जाती? जेल एक बुरा मेजबान साबित नहीं हो जाता? जेल कतई नहीं चाहता था कि ऐसा हो.

तो वह जुट गया अतिथियों की खातिरदारी में. उसने अपने आदमियों से साफ़-साफ़ कह दिया: सुबह की चाय, फिर नाश्ता, फिर दोपहर का भोजन, फिर शाम की चाय और उसके बाद रात का खाना सारा स्वादिष्ट हो, सबको प्यार से परोसा जाए, सबकी पसंद-नापसंद का ठीक से ख़याल रखा जाए, फल, सब्ज़ियाँ, मेवे -मिठाइयाँ, अचार, पापड़, चटनी किसी में कोई कमी नहीं रहनी चाहिए. सुबह चाय के साथ मीठे और नमकीन बिस्किट, नाश्ते में सेंव-पोहा-जलेबी, दोपहर के भोजन में तीन तरह की सब्ज़ियाँ, दाल, पूड़ी, पुलाव, रायता, सलाद, और मीठा, शाम की चाय के साथ कभी भजिये, कभी कचोरी-समोसा, कभी हॉट डॉग, कभी पेटिस, कभी आलू की टिकिया, कभी भुट्टे का कीस, कभी साबूदाने की खिचड़ी जैसा कुछ चटपटा, और रात के खाने में कढ़ी चावल, पराठे-सब्ज़ी जैसा कुछ हल्का-फुल्का तो कम-से-कम होना ही चाहिए. साथ ही मौसम के हिसाब से गराडू, गाजर का हलवा, दाल-बाफले-लड्डू, आम का रस, लस्सी, शिकंजी, कुल्फी, गुड़ की गजक, आइस क्रीम जैसी ख़ास चीज़ों को भी शामिल किया जाना चाहिए. आखिर दूर-दराज़ से इंदौर आए हुए लोगों को बुरा नहीं लगना चाहिए कि वे जेल में बंद हैं और सराफ़ा और छप्पन जैसी जगहों पर जाकर इन सारी चीज़ों का लुत्फ़ नहीं उठा सकते.

जेल के रसोइये कमर कस कर जेल के आदेशों पर अमल करने लगे. रसोईघर से सुबह-दोपहर-शाम खुशबू के झोंके आते, मसाले पीसे जाते, सब्ज़ियों-दालों में हींग के छौंक लगते, कोथमीर और हरी मिर्च की चटनी पीसी जाती, नींबू निचोड़े जाते, शुद्ध घी में जलेबियाँ तली जातीं और बड़े-बड़े कड़ाहों में दूध उबाला जाता. इतने प्यार और दुलार से मेहमान खुश न होते तो क्या होते? अपने मेजबान की दिलदारी से भावविभोर हो कर वह बेचारे सोच में पड़ जाते कि क्या खाएँ और क्या न खाएँ. कई बार तो उन्हें मजबूरी में इसलिए खाना पड़ता कि जेल बुरा न मान जाए. यदि खाना बच जाता, तो जेल बहुत दुखी हो जाता था. उसने अपने मेहमानों के लिए पान, सुपारी, पाचक चूर्ण, और हरड़े आदि की भी व्यवस्था कर रखी थी. इसलिए पेट भर कर खाने के सिवाय मेहमानों के सामने दूसरा कोई रास्ता न था.

धीरे-धीरे उन्हें इस सबकी आदत पड़ गई. और वे तरह-तरह के खाने खाने में माहिर हो गए. यह बात और है कि उनका वज़न दिन दूना रात चौगुना बढ़ने लगा. कपड़े छोटे पड़ने लगे. लेकिन मेजबान की ख़ुशी और इंदौर की शान के लिए क्या वह इतना भी नहीं कर सकते थे?

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यह लेख इस रिपोर्ट पर आधारित एक हल्का-फुल्का व्यंग्य है. कृपया इसे अन्यथा न लें.

Friday, February 6, 2015

यादों के आँगन में

पुराने मकानों को धराशायी कर वहाँ नई इमारतें खड़ी करना आजकल आम बात है. इसीसे जुड़ा एक सुन्दर लघुलेख मैंने पिछले दिनों अंग्रेज़ी में पढ़ा. बहुत ही तरल और हृदयस्पर्शी! न्यू इण्डियन एक्सप्रेस में २८ सितम्बर, २०११ को प्रकाशित रवि शंकर की यह रचना चंद शब्दों में अपनी बात कहती है. यह देखने के लिए कि क्या हिन्दी में भी वह बात बन पाती है, मैंने उसका तर्जुमा हिन्दी में किया है. मूल लेख की लिंक भी साथ है. पढ़ें और बताएँ!

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अतीत की यादें किसी पुराने रिकॉर्ड की तरह होती हैं, जिसे छोटे बच्चों के कपड़ों या पुराने प्रेमपत्रों की तरह घर के कबाड़ख़ाने में सहेज कर रखा जाता है. उस रिकॉर्ड को बजाओ तो पता चलता है कि उसमें कई खरोंचें आ चुकी हैं और आवाज़ बार-बार टूट रही है; वह आवाज़ दिल को कचोटती है. लेकिन मन में गीत की वह धुन अब भी अच्छी तरह से बजती है...एक लम्बा अरसा गुज़र जाने के बावजूद!

अपने बचपन के घर में लौटकर उसे कुछ अजीब-सा लगा, जैसे वह एक परिचित अजनबी हो. वह घर जल्द ही बिकनेवाला था. पीली पड़ चुकी दीवारों पर आँगन के पेड़ की छाया ऐसे दिख रही थी जैसे किसी दैत्य के हाथ हों, बचपन की रातों में हिलते हुए वह हाथ बहुत डरावने लगते थे. फिर वह उन इबारतों को खोजने लगा जो बचपन में उन्होंने गुप्त जगहों पर चोरी-छिपे लिखी थीं. शायद बाद में पुताई करनेवालों की नज़रों से वे बच गई हों, क्योंकि उन जगहों तक वही पहुँच सकते थे जिन्हें उनके बारे में जानकारी हो. वह एक छोटी लड़की की धुँधली हो चुकी तस्वीर उठाने के लिए नीचे झुका. शायद साथ ही पड़ी अस्त-व्यस्त पन्नों वाली अभ्यास-पुस्तिका में से यह तस्वीर नीचे गिर पड़ी थी. एक मुस्कुराते हुए चेहरे के दोनों तरफ लाल फीते के फूलों से सजी दो चोटियाँ, काजल से गहराई आँखें जो धूप की वजह से बंद हो रही थीं; एक पल के लिए हवा का झोंका कहीं से चमेली के फूलों की खुशबू लेकर आया और यादों के खज़ाने में से हँसी की आवाज़ गूँज उठी.

वह खाली कमरों में चहलकदमी करने लगा. जहाँ कभी चित्र टँगे होते थे, वहाँ अब ख़ाली चौकोर थे. छत में बड़े-बड़े छेद थे जिनमें से दिखनेवाले आकाश को छत की बल्लियाँ चिढ़ा रही थीं. चटके हुए फर्श पर फैले कूड़े के बीच पड़े चिड़ी के इक्के पर उसकी नज़र पड़ी. वह ऐसे मुस्कुराया जैसे किसीने कई बार सुना हुआ लतीफ़ा दोहराया हो. लतीफ़ा तो अब मजेदार नहीं रहा, महज उसे सुनाए जाने की याद से चेहरे पर मुस्कुराहट छा गई. इसी घर के बरामदे में दोस्तों के साथ ताश खेलते हुए सुना लतीफ़ा. अब तो उन दोस्तों की कोई ख़बर ही नहीं है.

अनवर हुसैन की शृंखला "नॉस्टेलजिया" से साभार  

लकड़ी के जिन खम्भों पर ढलाऊँ छत टिकी हुई है, वह जल्द ही उखड़ जाएँगे. उसने गहरे रंग की उस लकड़ी को छुआ. उसकी उँगलियों ने वहाँ उसके पूर्वजों के स्पर्श को महसूस किया. मगन होकर नाचनेवाले फ़कीर की तरह अपनी बाँहें आकाश में फैलाकर सूरज ढल रहा था. उसने मलाबार का वह सूर्यास्त देखा, जहाँ कई-कई रंग बिखर रहे थे, ठीक उसके गीत के सुरों की तरह. उसे लगा उसने घर के अन्दर से अपनी माँ की पुकार सुनी. माँ के हाथों की बनी कॉफ़ी की विशिष्ट तेज़ सुगंध भी उस तक पहुँची. उसने एक झटके के साथ मुड़ कर पीछे देखा, लेकिन घर में कोई नहीं था.

बगीचे में पौधे बेतरतीब-से बढ़े हुए थे. आँगन में कई दिनों से झाड़ू नहीं लगी थी और यहाँ-वहाँ कूड़ा फैला हुआ था. लेकिन वहीं पर तुलसी वृन्दावन ऐसे खड़ा था जैसे इस बीच इतने वर्षों का अंतराल गुज़रा ही न हो. सफ़ेदी किया हुआ ईंटों का चौकोर चबूतरा, जिसमें दीया रखने के लिए छोटे-छोटे आले बने हुए थे ताकि दीये को हवा न लगे. पौधा हरा-भरा था. उसके पत्तों की भीनी खुशबू उस शाम को महका रही थी. उसने तुलसी के एक पत्ते को अपनी उँगलियों के बीच दबाया. उसके सुगन्धित स्पर्श से उसे सुकून मिला. जब उसने देखा कि पौधे के नीचे की मिट्टी नम है, तो उसे बहुत अचरज हुआ. पिछले कई दिनों से बारिश नहीं हुई थी. उसने नीचे झुककर आले की ओर देखा तो वहाँ रखा मिट्टी का एक दीया उसे दिखा. उस दीये में तेल के धब्बे थे. किसीने यह दीया पिछले दिनों जलाया था.

वह मुस्कुराया. उसकी जेब में रखा फ़ोन बज उठा. घर के खरीदारों की तरफ़ से उनके एजेंट का फ़ोन था. शायद पता करना चाहता था कि वह कितनी जल्दी घर के कागज़ात पर दस्तख़त कर सकते हैं. उसने फ़ोन नहीं उठाया.

मूल अंग्रेज़ी रचना: रवि शंकर , न्यू  इण्डियन एक्सप्रेस, २८ सितम्बर २०११

Thursday, July 24, 2014

एक टिप्पणी "ज़िन्दगी गुलज़ार है" पर

हाल ही में ज़िंदगी चैनल पर पाकिस्तानी धारावाहिक "ज़िंदगी गुलज़ार है" देखने का मौका मिला. बेहतरीन अदाकारी, दिल को छू लेने वाले संवाद, उम्दा कहानी और कसे हुए निर्देशन से सजा यह धारावाहिक केवल २६ भागों में अपनी बात कहता है. हमारे हिंदी और मराठी धारावाहिकों की तरह नहीं, जिनकी कहानी शैतान की आँत की तरह खिंचती ही चली जाती है और कभी ख़त्म होती-सी नहीं लगती. यह एक ऐसी औरत, राफ़िया की कहानी है जिसके पति ने उससे मुँह मोड़ कर सिर्फ़ इसलिए दूसरी शादी कर ली कि उसने तीन बेटियों को जन्म दिया, एक भी बेटे को नहीं. धारावाहिक के शुरूआती भागों में से किसी एक में यह दृश्य है--तेज़-तेज़ चलती हुई राफ़िया अपनी बड़ी बेटी कशफ़ के साथ जा रही है कि अचानक उसके पैर की चप्पल टूट जाती है. कशफ़ का युनिवर्सिटी जाने का पहला दिन है और उसे पहले ही देर हो चुकी है. वह चाहकर भी अपनी माँ के लिए रुक नहीं सकती. टूटी हुई चप्पल हाथ में लिए राफ़िया उसी रफ़्तार से अपनी बेटी के साथ चलती है, ताकि उसे बस तक छोड़ सके. और कशफ़ बेबस होकर बस में चढ़ जाती है. यह सोचती हुई कि इतनी सुबह इस हाल में उसकी माँ अपने स्कूल तक कैसे पहुँचेगी. यह दृश्य राफ़िया के अपनी बेटियों को ज़िंदगी में आगे बढ़ाने के जज़्बे, पति के सहारे के बिना मध्यवर्गीय परिवेश के संकुचित माहौल में तीन बेटियों को पालने-पोसने की जद्दोज़हद, और इस मुश्किल राह पर चलते हुए आनेवाली अनगिनत कठिनाइयों का बेहद खूबसूरत प्रतीक है.

कराची के मध्यवर्गीय और उच्चवर्गीय माहौल को पर्त-दर-पर्त खोलती हुई यह कहानी पति-पत्नी सम्बन्धों, समाज में आदमी और औरत के भिन्न स्थान, और उनके बीच होनेवाले भेदभाव को बहुत ही सुलझे हुए तरीके से दिखाती है, किसी पाठ्यपुस्तक की तरह उपदेश देते हुए नहीं. कहानी के बारे में और कुछ नहीं कहूँगी ताकि जो इसे देखना चाहें (यह यू ट्यूब पर उपलब्ध है), उनकी दिलचस्पी बनी रहे.

पाकिस्तानी युवा लेखिका उमैरा अहमद के "ज़िंदगी गुलज़ार है" नामक पुस्तक पर आधारित इस धारावाहिक का निर्देशन सुलताना सिद्दिकी ने किया है. कई धारावाही प्रस्तुतियों का निर्माण और निर्देशन तो उन्होंने किया ही है, साथ ही वह एक सफल व्यवसायी भी हैं. २०१२ में जिस टेलीविजन चैनल पर यह धारावाहिक दिखाया गया था, उस हम नेटवर्क लिमिटेड की वह संस्थापक और अध्यक्ष हैं. उनके निर्देशन की एक ख़ासियत मुझे यह लगी कि उन्होंने नाटकीयता को बहुत दूर रखा है. उनके सारे पात्र एकदम खरे और जीवंत लगते हैं. छोटे-छोटे दृश्यों के माध्यम से उन्होंने कहानी बुनी है. इसलिए उसे देखना कहीं भी बोझिल और ऊबाऊ नहीं लगता. कहीं-कहीं तो जटिल मानवीय संवेदनाओं को बहुत नाज़ुक तरीके से पेश किया गया है. अतिरंजित हावभावों से भरपूर धारावाहिक देखने के आदी दर्शकों के लिए इतनी सुगढ़ प्रस्तुति देखना निश्चित ही एक सुखद अनुभव है. इसके संवाद भी सारे माहौल के साथ मेल खाते हुए और बहुत सहज हैं. कई उर्दू शब्द तो हमारे परिचित हैं, जो नहीं भी हैं, वे सुनने में मीठे लगते हैं और संदर्भ पर ग़ौर करें तो आसानी से समझ में आ जाते हैं. राफ़िया की महत्वपूर्ण भूमिका को समीना पीरज़ादा ने बड़ी शिद्दत के साथ निभाया है. और कशफ़ को साकार किया है  ब्रिटिश-पाकिस्तानी अदाकारा सनम सईद ने. ज़ारून बने हैं जाने-माने मॉडेल, गायक और अभिनेता फवाद अफज़ल ख़ान जो जल्द ही अनिल कपूर की "खूबसूरत" में सोनम कपूर के साथ बड़े परदे पर दिखाई देंगे. अन्य सभी कलाकार अपनी-अपनी भूमिका में एकदम सटीक हैं.

एक और बात. इसमें कहीं भी किसी सेट का इस्तेमाल होता हुआ नहीं दिखा. कराची के आलिशान बंगलों से लेकर छोटे मध्यवर्गीय घरों तक कैमरा हमें सीधे-सीधे ले जाता है. सभी कलाकारों की वेशभूषा पर भी खासी मेहनत की गई है. अपने क़िरदार के माकूल लिबास पहने कलाकार बहुत विश्वसनीय लगते हैं. सरहद पार का यह धारावाहिक न सिर्फ़ अच्छा लगा, बहुत अपना भी लगा.