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Thursday, July 24, 2014

एक टिप्पणी "ज़िन्दगी गुलज़ार है" पर

हाल ही में ज़िंदगी चैनल पर पाकिस्तानी धारावाहिक "ज़िंदगी गुलज़ार है" देखने का मौका मिला. बेहतरीन अदाकारी, दिल को छू लेने वाले संवाद, उम्दा कहानी और कसे हुए निर्देशन से सजा यह धारावाहिक केवल २६ भागों में अपनी बात कहता है. हमारे हिंदी और मराठी धारावाहिकों की तरह नहीं, जिनकी कहानी शैतान की आँत की तरह खिंचती ही चली जाती है और कभी ख़त्म होती-सी नहीं लगती. यह एक ऐसी औरत, राफ़िया की कहानी है जिसके पति ने उससे मुँह मोड़ कर सिर्फ़ इसलिए दूसरी शादी कर ली कि उसने तीन बेटियों को जन्म दिया, एक भी बेटे को नहीं. धारावाहिक के शुरूआती भागों में से किसी एक में यह दृश्य है--तेज़-तेज़ चलती हुई राफ़िया अपनी बड़ी बेटी कशफ़ के साथ जा रही है कि अचानक उसके पैर की चप्पल टूट जाती है. कशफ़ का युनिवर्सिटी जाने का पहला दिन है और उसे पहले ही देर हो चुकी है. वह चाहकर भी अपनी माँ के लिए रुक नहीं सकती. टूटी हुई चप्पल हाथ में लिए राफ़िया उसी रफ़्तार से अपनी बेटी के साथ चलती है, ताकि उसे बस तक छोड़ सके. और कशफ़ बेबस होकर बस में चढ़ जाती है. यह सोचती हुई कि इतनी सुबह इस हाल में उसकी माँ अपने स्कूल तक कैसे पहुँचेगी. यह दृश्य राफ़िया के अपनी बेटियों को ज़िंदगी में आगे बढ़ाने के जज़्बे, पति के सहारे के बिना मध्यवर्गीय परिवेश के संकुचित माहौल में तीन बेटियों को पालने-पोसने की जद्दोज़हद, और इस मुश्किल राह पर चलते हुए आनेवाली अनगिनत कठिनाइयों का बेहद खूबसूरत प्रतीक है.

कराची के मध्यवर्गीय और उच्चवर्गीय माहौल को पर्त-दर-पर्त खोलती हुई यह कहानी पति-पत्नी सम्बन्धों, समाज में आदमी और औरत के भिन्न स्थान, और उनके बीच होनेवाले भेदभाव को बहुत ही सुलझे हुए तरीके से दिखाती है, किसी पाठ्यपुस्तक की तरह उपदेश देते हुए नहीं. कहानी के बारे में और कुछ नहीं कहूँगी ताकि जो इसे देखना चाहें (यह यू ट्यूब पर उपलब्ध है), उनकी दिलचस्पी बनी रहे.

पाकिस्तानी युवा लेखिका उमैरा अहमद के "ज़िंदगी गुलज़ार है" नामक पुस्तक पर आधारित इस धारावाहिक का निर्देशन सुलताना सिद्दिकी ने किया है. कई धारावाही प्रस्तुतियों का निर्माण और निर्देशन तो उन्होंने किया ही है, साथ ही वह एक सफल व्यवसायी भी हैं. २०१२ में जिस टेलीविजन चैनल पर यह धारावाहिक दिखाया गया था, उस हम नेटवर्क लिमिटेड की वह संस्थापक और अध्यक्ष हैं. उनके निर्देशन की एक ख़ासियत मुझे यह लगी कि उन्होंने नाटकीयता को बहुत दूर रखा है. उनके सारे पात्र एकदम खरे और जीवंत लगते हैं. छोटे-छोटे दृश्यों के माध्यम से उन्होंने कहानी बुनी है. इसलिए उसे देखना कहीं भी बोझिल और ऊबाऊ नहीं लगता. कहीं-कहीं तो जटिल मानवीय संवेदनाओं को बहुत नाज़ुक तरीके से पेश किया गया है. अतिरंजित हावभावों से भरपूर धारावाहिक देखने के आदी दर्शकों के लिए इतनी सुगढ़ प्रस्तुति देखना निश्चित ही एक सुखद अनुभव है. इसके संवाद भी सारे माहौल के साथ मेल खाते हुए और बहुत सहज हैं. कई उर्दू शब्द तो हमारे परिचित हैं, जो नहीं भी हैं, वे सुनने में मीठे लगते हैं और संदर्भ पर ग़ौर करें तो आसानी से समझ में आ जाते हैं. राफ़िया की महत्वपूर्ण भूमिका को समीना पीरज़ादा ने बड़ी शिद्दत के साथ निभाया है. और कशफ़ को साकार किया है  ब्रिटिश-पाकिस्तानी अदाकारा सनम सईद ने. ज़ारून बने हैं जाने-माने मॉडेल, गायक और अभिनेता फवाद अफज़ल ख़ान जो जल्द ही अनिल कपूर की "खूबसूरत" में सोनम कपूर के साथ बड़े परदे पर दिखाई देंगे. अन्य सभी कलाकार अपनी-अपनी भूमिका में एकदम सटीक हैं.

एक और बात. इसमें कहीं भी किसी सेट का इस्तेमाल होता हुआ नहीं दिखा. कराची के आलिशान बंगलों से लेकर छोटे मध्यवर्गीय घरों तक कैमरा हमें सीधे-सीधे ले जाता है. सभी कलाकारों की वेशभूषा पर भी खासी मेहनत की गई है. अपने क़िरदार के माकूल लिबास पहने कलाकार बहुत विश्वसनीय लगते हैं. सरहद पार का यह धारावाहिक न सिर्फ़ अच्छा लगा, बहुत अपना भी लगा.