भारतीय जनता पार्टी की वरिष्ठ नेता सुमित्रा महाजन २०१४ से २०१९ तक लोकसभा की स्पीकर रहीं. वह १९८९ से २०१९ तक लगातार इंदौर लोकसभा क्षेत्र से भाजपा की प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीतीं. उनकी छवि एक कुशल और साफ़-सुथरी नेता की रही है. मुझे १९८९ में दिल्ली में उनसे मिलने का और बातचीत करने का मौक़ा मिला. उस समय उन्हें पहली बार सांसद बनकर कुछ महीने ही हुए थे. वह एक आम मध्यवर्गीय मराठीभाषी महिला की तरह बहुत सादगी से मुझसे मिलीं. उनकी सादगी वरिष्ठ नेता बनने के बाद भी क़ायम रही.सुमित्राजी इंदौर में 'ताई' के नाम से लोकप्रिय हैं. आज यदि मैं उनके बारे में लिखती तो उन्हें ताई ही कहती. २४ दिसंबर १९८९ के नवभारत टाइम्स में स्तम्भ 'नए चेहरे' के अंतर्गत मेरी उनके साथ की गई बातचीत प्रकाशित हुई थी. आज उसीको अपने ब्लॉग पर संजो कर रख रही हूँ.

इंदौर से भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर लोकसभा के लिए चुनी गईं सुमित्रा महाजन के बारे में सबसे पहली बात तो यह कि उन्होंने करीब चार साल तक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री और केंद्र सरकार में एक समय गृह, रेल और पेट्रोलियम एवं रसायन जैसे विभागों के मंत्री रह चुके कांग्रेसी दिग्गज प्रकाशचंद सेठी को हराया है. करीब तीन साल पहले दिल्ली से बम्बई बात कर रहे श्री सेठी का फोन अचानक कट जाने पर उनके आधी रात किदवई भवन ट्रंक एक्सचेंज पहुँचने, वहाँ गाली-गलौज करने, पिस्तौल निकाल लेने और ड्यूटी पर तैनात महिला कर्मचारियों के साथ दुर्व्यवहार करने की ख़बरें उस वक़्त सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से छपी थीं. खबर यह भी थी कि श्री सेठी मानसिक असंतुलन के शिकार हैं. ट्रंक एक्सचेंज वाली घटना की तरह कुछ और घटनाएँ भी हुईं जिन्होंने मानो उनके मानसिक असंतुलन वाली बात की पुष्टि कर दी.
पिछले कुछ दिनों में सेठीजी ख़बरों में नहीं के बराबर थे तो लगा कि वे राजनीति के वानप्रस्थ काल में पहुँच गए हैं. ऐसे व्यक्ति को इंदौर से टिकट देकर कहीं कांग्रेस ने स्वयं ही इंदौर में अपनी हार को न्यौता तो नहीं दिया था? इस सवाल के जवाब में सुमित्राजी कहती हैं: 'नहीं, नहीं. सेठीजी जीत भी सकते थे. हो सकता है मेरी बजाय कोई और उनका सामना करता तो जीत ही जाते. यूँ जीत के प्रति आश्वस्त तो कोई नहीं होता... मैं भी नहीं थी. आख़िर सेठीजी इससे पहले जीतते ही तो आए हैं.'
जीत के प्रति आश्वस्त होना तो दूर, सुमित्राजी बताती हैं कि लोकसभा चुनाव लड़ने का उनका कोई ख़ास इरादा भी नहीं था. लेकिन पार्टी की इच्छा थी इसलिए वह चुनावी मैदान में उतरीं. उनकी उम्मीदवारी की ख़बर सुनकर कई लोगों के मन में यह सवाल आया और कुछ ने तो उनसे पूछा भी कि सेठीजी चुनाव पर जितना खर्च कर सकते हैं उसका मुक़ाबला न तो आप कर सकती हैं, न ही आपकी पार्टी. फिर उनका सामना आप कैसे करेंगी? सुमित्राजी का जवाब होता था--आप देखिए, लोग मुझे वोट भी देंगे और नोट भी देंगे. और यही हुआ भी. लोग आते और सुमित्राजी से कहते: सुमित्रा ताई ( दीदी के लिए मराठी शब्द), हमारे घर में दस वोट हैं, ये लीजिए दस रूपए.' तो एक तरह से मेरा चुनाव लोगों ने ही लड़ा. युवाओं ने, महिलाओं ने मेरे लिए बहुत काम किया.' सुमित्राजी अपने कार्यकर्ताओं के प्रति अभिभूत होकर बताती हैं.
वैसे अपनी पार्टी और उसके उम्मीदवारों के लिए सुमित्राजी भी काफ़ी काम करती रही हैं. इमर्जेंसी के बाद १९७७ में जब कुछ लोगों ने जेल के भीतर से ही चुनाव लड़ा तब सुमित्राजी उनके समर्थन में बहुत सक्रिय रहीं. १९८५ के विधानसभा चुनाव में सुमित्राजी ने पहली बार अपनी क़िस्मत आजमाई लेकिन उस समय उन्हें हराकर कांग्रेस के महेश जोशी विधायक बने.
सुमित्राजी विधायक नहीं बन सकीं लेकिन वह एक अर्से से इंदौर में धार्मिक और सामाजिक प्रवचनकार के रूप में जानी जाती रही हैं. धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या करने की उनकी रोचक और रसपूर्ण शैली इंदौर के मध्यवर्गीय मराठीभाषी परिवारों में काफ़ी लोकप्रिय है. यही मध्यवर्गीय मराठीभाषी परिवार इंदौर के मतदाताओं का काफ़ी बड़ा हिस्सा बनाते हैं. इनके बीच सुमित्राजी की छवि एक ऐसी साफ़-सुथरी मध्यवर्गीय गृहिणी की है, जो राजनीति की कालिख और गंदगी से बहुत दूर है. ' लेकिन मैं राजनीति में हूँ और अपनी जीत के बाद अब दावे से कह सकती हूँ कि राजनीति में अभी भी साफ़-सुथरे लोगों के लिए जगह है, और यह भी कि सिर्फ़ पैसे के बल पर ही चुनाव नहीं जीते जाते. '
सुमित्राजी लोकसभा में इंदौर का प्रतिनिधित्व करेंगी, लेकिन वह मूलतः इंदौर की नहीं हैं. इंदौर इनकी ससुराल है और शादी के बाद पिछले २४ वर्षों से वे इंदौर में रह रही हैं. महाराष्ट्र के एक कस्बे चिपलूण में पली-बढ़ीं सुमित्राजी ने मैट्रिक तक की पढ़ाई चिपलूण में ही की. फ़िर बम्बई आ गईं. माता-पिता की मृत्यु बहुत जल्दी हो गई थी. शादी के बाद अपने पति और परिवार की मदद से सुमित्राजी ने बी. ए. की शिक्षा पूर्ण की. मनोविज्ञान में एम. ए. किया, एल. एल. बी. भी किया. इसी बीच वह दो बेटों की माँ बनीं. अपने बेटों की परवरिश और परिवार की जिम्मेदारी के साथ-साथ शहर के सांस्कृतिक, सामाजिक, साहित्यिक परिवेश में सक्रिय रहीं और अब जब बेटे बड़े हो गए हैं( बड़ा बेटा इंजीनियर है और छोटा बी. एस-सी. के दूसरे साल में है) तब सुमित्राजी देश के सर्वोच्च सदन में इंदौर का प्रतिनिधित्व कर रही हैं.
सुमित्राजी प्रदेश महिला मोर्चा की महामंत्री हैं. साथ ही बाल संरक्षण गृह, अनाथालय, महिला सुधार गृह जैसी संस्थाओं की समिति की सदस्या हैं. पिछले दिनों इन्होंने अहिल्या मातृशक्ति संवर्धन केंद्र का गठन किया है जहाँ पीड़ित महिलाओं को कानूनी सहायता दी जाएगी. तलाक़ के मामले, दहेज़ के मामले आदि भी सुलझाए जाएँगे। कामकाजी औरतों के बच्चों के लिए झूलाघर शुरू किया है. वैसे तलाक़ के मामलों में सुमित्राजी अपने पति (जो कि वकील हैं) की भी सहायता करती रही हैं. उनकी कोशिश रहती है कि कोर्ट में जाने से पहले ही किसी तरह मामला सुलझ जाए.
इंदौर के करीब देवास और पीथमपुर में कई उद्योगों के खुलने से इंदौर प्रदेश का सबसे बड़ा औद्योगिक क्षेत्र हो गया है, लेकिन उस हिसाब से वहाँ विकास उतना नहीं हुआ है जितना होना चाहिए. पानी की समस्या यहाँ की एक बड़ी समस्या है. सुमित्राजी नर्मदा योजना का दूसरा चरण शीघ्र पूरा कराने का प्रयास करेंगी. शहर की आबादी और वाहनों की संख्या के अनुपात में वहाँ की सड़कें बहुत सँकरी हैं. इस समस्या का समाधान शहर के बाहरी किनारों पर रिंग रोड बनवा कर किया जा सकेगा.
एक समय अपने कपड़ा उद्योग के लिए प्रसिद्ध इंदौर की कई मिलें बीमार पड़ी हैं जिसके कारण बेरोज़गारी बढ़ी है. सुमित्राजी की कोशिश रहेगी कि इन बीमार मिलों को शुरू कराया जाए. आसपास के गाँवों तक पक्की सड़कें नहीं तो कम-से-कम पहुँच-मार्ग बनें. सुमित्राजी का मानना है कि जब सांसद और विधायक साथ मिलकर काम करेंगे, तब ही अपने क्षेत्र के लिए कुछ ठोस उपलब्धियाँ हासिल कर पाएँगे.
सुमित्राजी काफ़ी आशावान हैं. १९६७ और १९७७ को छोड़कर हमेशा कांग्रेसी उम्मीदवार को लोकसभा भेजनेवाले इंदौर ने पहली बार भारतीय जनता पार्टी की प्रत्याशी को दिल्ली भेजा है. १९६७ में सिटीजन्स फोरम के होमी दाजी (अब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में) और १९७७ में जनता पार्टी के कल्याण जैन (अब जनता दल में) इंदौर से निर्वाचित हुए थे. अब यदि इंदौर की जनता ने इस ४६-वर्षीया 'गृहिणी' को करीब एक लाख १२ हजार मतों से जिताया है तो इसी उम्मीद के साथ कि वह उनकी घरों को, उनके नगर को अपने कुशल हाथों से सँवारेंगी.
बहुत रोचक!
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