Wednesday, October 29, 2025

यादों के पिटारे से: परंपरा के पुल पर एक यात्री

अमेरिकी सितारवादक स्कॉट मार्कस के साथ मेरी यह बातचीत नवभारत टाइम्स के २० मार्च, १९९३ के अंक में प्रकाशित हुई थी. कई साल गुज़र गए. हाल ही में स्कॉट के बारे में गूगल पर ढूँढ़ने पर पता चला कि वह सांता बारबरा स्थित युनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफोर्निया के संगीत विभाग में अब भी कार्यरत हैं. २०२१ में आयोजित उनके सितारवादन का कार्यक्रम यूट्यूब पर उपलब्ध है. 

सांता बारबरा स्थित युनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफोर्निया के विभिन्न भागों में पढ़ रहे भारतीय छात्र पिछले दिनों एक शाम इकट्ठे हुए थे. नया शैक्षिक साल अभी-अभी ही शुरू हुआ था. कुछ नए छात्र थे, जो पहली बार ही अन्य भारतीय छात्रों से मिल रहे थे. ऐसी शामें अक्सर एक-दूसरे से बतियाने और खाने-पीने में ही गुज़रती हैं. पर उस दिन बतियाने और खाने-पीने के बाद सितारवादन का एक कार्यक्रम हुआ. सितारवादक थे डॉ. स्कॉट मार्कस. ३९ - वर्षीय स्कॉट इसी विश्वविद्यालय के संगीत विभाग में प्रोफ़ेसर हैं. पता चला कि स्कॉट बहुत अच्छी हिंदी बोलते हैं. उनके पास जाकर मैंने सीधे हिंदी में ही बात करनी शुरू की और पाया कि स्कॉट वाक़ई अच्छी हिंदी बोलते हैं. उनसे और बातें करने का मन हुआ और एक दिन उनके साथ उनके ऑफ़िस में काफ़ी लम्बी बातचीत हुई. स्कॉट सिर्फ़ एक अच्छे सितारवादक ही नहीं, एक दिलचस्प इंसान भी हैं. वह क़रीब चार साल बनारस में रहे हैं--किसी पाँच -सितारा होटल में नहीं, बल्कि एक आम हिंदुस्तानी की तरह. स्कॉट गाँवों में गए, वहाँ घूमे, कुछ दिन रहे भी, नौटंकी देखी, रामलीला देखी और सितार बजाना सीखते रहे. बनारस के घाट उन्हें बहुत सुन्दर लगे. "गंगा माँ के पास बहुत शांति है"--वह कहते हैं. स्कॉट ने कुछ समय काहिरा में रहकर मध्य-पूर्व का वाद्य 'ऊद ' बजाना भी सीखा. वह मध्य-पूर्वी शैली में बाँसुरी भी बजाते हैं. अरबी भी उन्हें आती है. 

स्कॉट के कक्ष में प्रवेश करते ही सामने की दीवार पर राधा-कृष्ण का एक बड़ा-सा चित्र टंगा हुआ है. स्कॉट ने बताया कि वह दरअसल नौटंकी का एक परदा है. वीणावादिनी सरस्वती के दो चित्र भी हैं. एक जगह क़ाबा के चित्र के साथ एक अरबी कैलेंडर टंगा हुआ है.

आख़िर सितार में स्कॉट की दिलचस्पी हुई कैसे? स्कॉट ने बताया कि क़रीब बीस साल पहले जब वे वेस्लेयन विश्वविद्यालय, कनेक्टीकट में पहले वर्ष के छात्र थे तब संगीत या मानव-विज्ञान पढ़ने की उनकी इच्छा थी. उस  विश्वविद्यालय में कई देशों का संगीत सीखने की सुविधा थी. एक दिन एक कमरे के सामने से गुज़रते हुए स्कॉट को सितार के सुर सुनाई दिए. सुरों ने स्कॉट को आकर्षित किया और वह वहीं रुक कर सुनने लगे. सितारवादक ने स्कॉट को देखा तो उन्हें अंदर बुला लिया और स्वयं फ़िर सितार बजाने लगे. सितारवादक थे प्रोफ़ेसर रामदास चक्रवर्ती और वह बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से अतिथि प्रोफ़ेसर के रूप में वेस्लेयन विश्वविद्यालय आए थे. स्कॉट बताते हैं, "राम बहुत फ्रेंडली थे, एकदम मस्त." सितार के सुरों ने तो स्कॉट को बाँधा ही था, रामदास चक्रवर्ती के दोस्ताना व्यवहार ने भी उन्हें आकर्षित किया. स्कॉट अपनी अंगुली पर लगा मिज़राब दिखाते हुए कहते हैं, "उन्होंने मिज़राब दिया था, तब से ही हाथ में है. मैं राम चक्रवर्ती से सितार सीखने लगा. "

मैंने पूछा , "फ़िर भारत जाने का मन कैसे हुआ?" 

स्कॉट ने बताया, " विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय का एक कार्यक्रम था 'इयर एब्रॉड ' जिसमें एक साल के लिए बाहर जाकर सीख सकते थे. मैं तिहत्तर में हिन्दुस्तान गया. वहाँ बनारस में रामदास चक्रवर्ती के गुरु अमिय गोपाल भट्टाचार्य से सितार सीखने लगा. अमिय बाबू प्राइवेट टीचर थे. वीज़ा के लिए ज़रूरी था कि मैं बी. एच. यू. में एनरोल करूँ. दोपहर में अमिय बाबू से सीखते थे. शाम को बी. एच. यू. जाते थे. अमिय बाबू से हमने बहुत सीखा. इयर एब्रॉड कार्यक्रम में सिर्फ़ एक साल हिंदुस्तान रहना था पर जब एक साल पूरा होने को आया तो मैं वहाँ और रहना चाहता था. मेरी एक साइकिल थी, एक नौकर था, किराये का मकान था, मैं हिंदी भी सीख रहा था. अंततः मैं वहीं रह गया. कुछ समय बाद राम चक्रवर्ती और उनकी शिष्या कृष्णा सान्याल भी वापस बी. एच. यू. आ गए. तो मैं एक ही समय अमिय बाबू, राम और कृष्णा --तीन जनरेशन्स --क्या कहते हैं हिंदी में?"

"पीढ़ियाँ. " मैंने बताया. 

"हाँ , तीन पीढ़ियों से सितार सीखने लगा. सितार ही सितार चल रहा था मेरी दुनिया में उस समय. रोज़ आठ घंटे रियाज़ करता था. कभी-कभी दस मिनट के लिए बाहर दुकान पर चाय पीने जाता था, तो चायवाले भी पूछते थे कि रियाज़ ठीक चल रहा है कि नहीं. १९७५ में अमिय बाबू गुज़र गए. बड़ी उम्र के थे. उसके बाद मैं सोचने लगा कि वापस लौटना है."

और फ़िर स्कॉट अमेरिका लौट आए. यू  सी. एल. ए. (लॉस एंजेलिस स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय) में पीएच. डी.  प्रोग्राम शुरू किया. वहाँ लेबनॉन के एक संगीतज्ञ के संपर्क में आए तो मध्य-पूर्वी (मिडिल ईस्टर्न) संगीत में भी रुचि हुई. कुछ सालों बाद स्कॉट काहिरा गए, मध्य-पूर्व का वाद्य 'ऊद ' बजाना सीखा और बाँसुरी भी. दरअसल उनकी पीएच. डी. की थीसिस का विषय भी मध्य-पूर्व के संगीत से ही संबंधित है. 

संगीत के दो एक-दूसरे से बिलकुल भिन्न प्रकारों को एक ऐसे व्यक्ति द्वारा सीखना जिसकी अपनी संस्कृति उन दोनों से ही अलग हो, और उसे ही अपना 'करियर ' बनाना अपने आप में  बहुत बड़ी बात है. 

स्कॉट बाद में दो बार फ़िर भारत गए. उन्होंने भोजपुरी लोकगीतों में 'बिरहा' और 'कजली' पर काफ़ी काम किया. स्कॉट जब पहली बार भारत गए और तीन साल वहाँ रहे थे तभी भोजपुरी लोकगीतों में उनकी रुचि हुई थी. उनके नौकर का गाँव बनारस से सिर्फ़ १८ मील दूर था और स्कॉट अक्सर अपनी साइकिल से वहाँ जाकर लोकगीत सुना करते थे. बाद में जब वे इन लोकगीतों पर काम कर रहे थे तब उन्हें सुनने के लिए वे गाँव की कई बारातों में गए और लोकगीत रिकॉर्ड करते रहे. 

"अमेरिका के मुक़ाबले एक तो भारत वैसे ही कम विकसित देश है. फ़िर आप जिस तरह की जिंदगी वहाँ जीये, आपको कोई तकलीफ़, कोई असुविधा नहीं हुई?"

"नहीं, वह तो मेरे लिए एक रोमांच था. सिर्फ़ आख़िर के कुछ दिनों में पेट की गड़बड़ी हुई थी." स्कॉट ने मुस्कुरा कर बताया. 

"भारतीय शास्त्रीय संगीत दैवीय माना जाता है. वह आपको ईश्वर के क़रीब ले जाता है. क्या आपने ऐसा महसूस किया?"

"हाँ , सुर के पास शक्ति है. बजानेवाले को महसूस होता है. नादब्रह्म अपने आप में एक बहुत पॉवरफुल कांसेप्ट है. ध्वनि में रचनात्मक शक्ति है. संगीत ध्यान है."

एक शाम मैं युनिवर्सिटी में स्कॉट की सितार की कक्षा में गई थी. देखा कि क़रीब १०-१२ छात्रों की कक्षा में तीन छात्र भारतीय थे. ये छात्र इंजीनियरिंग या गणित जैसे विषयों की पढ़ाई करने के लिए अमेरिका आए हैं और साथ ही सितार भी सीख रहे हैं. यह देख कर बहुत अच्छा लगा कि स्कॉट अपने अमेरिकी छात्रों को भी 'क्या बात है' कह कर ही दाद दे रहे थे. तब मुझे महसूस हुआ कि 'क्या बात है' की टक्कर का कोई शब्द अंग्रेज़ी में है ही नहीं. 

स्कॉट भारत जाकर हिंदी तो सीखे ही, वहाँ के कुछ संस्कार भी उन्होंने आत्मसात किए. उनकी कक्षा में जब एक छात्र का पैर उसकी नोटबुक से छू रहा था तो स्कॉट ने उसे टोका और उस छात्र ने तुरंत नोटबुक वहाँ से हटा ली. स्कॉट मानते हैं कि यहाँ के लोगों के लिए यह समझ पाना मुश्किल है कि अगर सितार फ़र्श पर रखी हो तो उसे लांघ कर नहीं, उसकी बगल से निकल जाना चाहिए या यह कि कागज़ विद्या का रूप होता है, उसे पैर से नहीं छूना चाहिए, लेकिन इन बातों को बताए बिना स्कॉट से नहीं रहा जाता. 

इन छोटी-छोटी बातों को देखकर मानना पड़ता है कि स्कॉट ने भारत जाकर सिर्फ़ सितार बजाना ही नहीं सीखा, बल्कि भारत को पूरे मन से जिया भी है और हज़ारों मील दूर कैलिफोर्निया में भी भारत उनके आसपास है, उनके साथ है. 

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