Wednesday, October 8, 2025

यादों के पिटारे से: पैठणी.... रेशम और सोने से बुनी गई कविता!

मेरा यह लेख पत्रिका वामा के अप्रैल १९८५ के अंक में प्रकाशित हुआ था.  

महाराष्ट्र की पैठणी साड़ी, साड़ी नहीं, अपने आप में एक आभूषण होती है. रेशम और सोने के पानी चढ़े धागों से बनी यह साड़ी शाही परिवारों की महिलाएँ पहनती थीं. महाराष्ट्र के धनी परिवारों की दुल्हनें पैठणी पहनने वाली गिनी-चुनी महिलाओं में होती थीं. पर्शिया के राजा भी अपनी शाही पोशाक पैठण के बुनकरों से बनवाते थे. 

लेकिन समय के साथ पैठणी साड़ी के रंग फ़ीके पड़ते गए. ज़री की चमक कम होने लगी. न तो शाही परिवार रह गए और न ही दुल्हनों को पैठणी साड़ियों में सजाने की परंपरा. अब कुछ ही परिवार रह गए हैं, जो पारम्परिक पैठणी साड़ियाँ बुनते हैं. 

पैठण, महाराष्ट्र के औरंगाबाद के निकट एक छोटा-सा क़स्बा है. यहीं पर ये साड़ियाँ बनती रही हैं और इसीलिए 'पैठणी ' कहलाती हैं. क़रीब दो हज़ार वर्ष पूर्व पैठण में पाँच सौ परिवार थे जो पैठणी बनाने की कला सिर्फ़ जानते ही नहीं थे, वही उनकी जीविका थी. पैठणी हथकरघे पर ही बनती है. किसी प्रकार की मशीन का इस्तेमाल इसमें नहीं होता. ज़री के धागों और रेशम को तिल्लियों पर लपेटकर रखा जाता है. और बुनकर धागे गिन-गिन कर उन्हें एक-दूसरे के साथ बुनते जाते हैं और बेहतरीन डिज़ाइन बनाते हैं. ज़ाहिर है, इसमें बहुत समय लगता है. 


इसीलिए पैठणी साड़ी बहुत महँगी होती है. शाही परिवारों के लुप्त हो जाने से और आम जनता में पैठणी (महाराष्ट्र में इसे सिर्फ़ पैठणी ही कहा जाता है, इसके साथ साड़ी नहीं जोड़ा जाता) की कोई माँग न होने से पैठणी उद्योग मंदा हो गया. बुनकरों ने अपना परिवार चलाने के लिए जीविका के दूसरे साधन अपना लिए. जो बुनकर बच गए थे, वे भी किस उम्मीद से पैठणी बनाते?

लेकिन शुक्र है, पैठणी उद्योग पूरी तरह से नष्ट नहीं हुआ. महाराष्ट्र लघु उद्योग विकास निगम ने अब यह उद्योग अपने हाथ में ले लिया है और क़रीब नौ-दस परिवारों के १६-१७ लोग (जिसमें दो-तीन महिलाएँ भी हैं) अब इस निगम के कर्मचारियों के रूप में पैठणी बनाते हैं. 

पिछले दिनों नई दिल्ली में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेले के महाराष्ट्र पैवेलियन में पैठणी साड़ियाँ प्रदर्शित की गई थीं. साथ ही पैठण से विशेष रूप से श्री प्रभाकर अम्बादास दालकरी को लाया गया था जो ज़री और रेशम का एक शॉल दर्शकों के सामने बना रहे थे. उन्होंने यह कला अपने पिता से सीखी, जो आज ८० वर्ष की उम्र में भी साड़ियाँ बनाते हैं. 

श्री दालकरी ने बताया कि सादी से सादी पैठणी बनाने में एक व्यक्ति को क़रीब दो महीने लग जाते हैं. वह भी तब जब वह दिन में १२ घंटे काम करे. अधिक अच्छी यानी चौड़े बॉर्डर वाली और ज़री के ज़्यादा काम वाली साड़ी बनाने में आठ महीने भी लग सकते हैं. इन दिनों तो धागों पर चाँदी का पानी चढ़ा कर ही ज़री बनाई जाती है और उसे सोने का रंग दिया जाता है. श्री दालकरी ने बताया कि असली सोने की ज़री अब नहीं बनती. ज़री सूरत में बनती है और उसकी क़ीमत तीन हज़ार से साढ़े पाँच हज़ार रुपए प्रति किलो होती है. सादी पैठणी में भी क़रीब दो सौ ग्राम ज़री होती है और पाँच सौ ग्राम रेशम. रेशम बंगलूर से आता है. सादी पैठणी की क़ीमत कम से कम तीन हज़ार रुपए होती है. २० हज़ार की भी पैठणी बनती है. तीन हज़ार रुपए की साड़ी बनाने वाले कलाकार को क़रीब आठ सौ रुपए मिलते हैं. पैठणी की उम्र बहुत लम्बी होती है. सौ साल पुरानी साड़ियाँ अब भी कुछ महाराष्ट्रीय परिवारों के पास हैं. 

पैठणी के बारे में एक और बात ग़ौर करने लायक है. इसका पल्ला पारम्परिक ढंग से लाल ही रंग का हो. लाल रंग के साथ ही ज़री सबसे ज़्यादा फबती है. और इसीलिए साड़ी और बॉर्डर के साथ मैचिंग का ख़्याल न रखकर पल्ला हमेशा लाल रंग का ही बनाया जाता है. 

अब ये साड़ियाँ केवल ऑर्डर पर बनती हैं. महाराष्ट्र लघु उद्योग विकास निगम ऑर्डर स्वीकार करता है. निगम दिसंबर में पैठण में ही एक प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना कर रहा है, जिसमें श्री दालकरी नए लोगों को पैठणी बुनने का प्रशिक्षण देंगे. 

निगम के पास फ़िलहाल जितने ऑर्डर हैं, वे अगले तीन वर्षों तक कर्मचारियों को व्यस्त रखेंगे. गुजरात से भी पैठणी के काफ़ी ऑर्डर आते हैं. १९८१ में पूरे वर्ष में ५३ साड़ियाँ बन पाई थीं. अब इससे अधिक साड़ियाँ बनाने की निगम की योजना है. पैठणी बनाना अपने आप में एक अनोखी कला है. इसे नष्ट होने से बचाना एक अच्छी बात है. 

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