मेरी यह पुस्तक समीक्षा १० फरवरी १९९० के नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुई थी.
चौपाल यदि हमारे गाँवों के सामाजिक केंद्र थे तो मंदिर धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र. मंदिर सिर्फ़ वह इमारत नहीं होती जिसमें भगवान की मूर्ति प्रतिष्ठित होती है, इस इमारत का एक-एक पत्थर उस बीते युग की कहानी सुनाता है जिसके ये पत्थर गवाह रहे हैं.
महाराष्ट्र की सांस्कृतिक विरासत बहुत समृद्ध है जो आज भी इस प्रदेश में गाँव-गाँव बिखरे मंदिरों के रूप में अपनी सम्पन्नता का अहसास कराती है. बीते दिनों की शिल्पकला, वास्तुकला आदि का अध्ययन करने के लिए मंदिर बहुत अच्छा माध्यम साबित हो सकते हैं. महाराष्ट्र सूचना केंद्र ने हाल ही में ' द टेम्पल्स ऑफ़ महाराष्ट्र' (महाराष्ट्र के मंदिर) नामक एक सचित्र पुस्तक प्रकाशित की है जो महाराष्ट्र के प्रमुख मंदिरों की एक परिचयात्मक झलक पेश करती है.
इसमें ३१ मंदिरों के बारे में जानकारी है जो बहुत विस्तृत तो नहीं, लेकिन इतनी संक्षिप्त भी नहीं है कि महज एक नोटनुमा लगे. इसमें मंदिर की बनावट का ज़िक्र है तो उसकी भौगोलिक स्थिति का भी. साथ ही मंदिर का इतिहास, उससे जुड़े किस्से-कहानियाँ, उसमें प्रतिष्ठित देवी-देवताओं के बारे में जनमानस में प्रचलित विश्वास आदि हैं.
लेखक गोपाल कृष्ण कान्हेरे ने १७ वीं और १९ वीं शताब्दी के दौरान मराठा काल में बने मंदिरों पर ज़्यादा ज़ोर दिया है. इन मंदिरों में विभिन्न शैलियों का मिश्रण देखा जा सकता है जो स्थानीय शैली के साथ मिलकर मराठा वास्तुकला के रूप में सामने आई. पुणे के पेशवाओं ने तो कुछ मंदिरों में मीनारें तक बनवाईं. ज़ाहिर है यह इस्लामी वास्तुकला का प्रभाव था. रायगढ़ के एक मंदिर परिसर में शिवाजी महाराज ने भी छोटी-छोटी मीनारें बनवाई थीं.
ये मंदिर सिर्फ़ स्मारक ही नहीं, इनमें से ज़्यादातर ऐसे जीवंत भवन हैं जहाँ आज भी पारम्परिक उल्लास के साथ त्योहार मनाए जाते हैं. मंदिरों में बजनेवाले ढोल, नगाड़ों और शहनाई के सुरों में, वहाँ से उठनेवाली फूल और अगरबत्तियों की ख़ुशबू में और वहाँ बँटनेवाले प्रसाद की मिठास में आज भी ऐसी ज़बरदस्त कशिश है कि साल-दर-साल तीर्थयात्री और पर्यटक इन मंदिरों की ओर खींचे चले आते हैं.
हर मंदिर मुख्यतः तीन हिस्सों में बँटा होता है__एक बड़ा हॉलनुमा कमरा जो सभामंडप कहलाता है, दूसरा अंतराल जो छोटा होता है और सबसे अंदर होता है गाभारा जहाँ देवी या देवता की मूर्ति प्रतिष्ठित होती है. इसी हिस्से के ऊपर शंकु के आकार का ऊँचा शिखर होता है जिस पर अंदर-बाहर से पच्चीकारी, चित्रकारी के सुन्दर नमूने देखे जा सकते हैं. ज़्यादातर मंदिर राजे-रजवाड़ों ने बनवाए और मंदिरों को सुन्दर बनाने के लिए अच्छे से अच्छे कलाकारों की मदद ली. इन कलाकारों की मेहनत से सजे मंदिरों को कई बार मुस्लिमों के हमलों का शिकार होना पड़ा. कुछ मंदिर तो कई बार टूटे और कई बार बने. शायद हमलों से बचाव के लिए ही पुणे के पर्वती और जेजुरी तथा शिखर शिंगणापुर के मंदिरों के इर्दगिर्द किले की तरह दीवार बनी है.
ज़्यादातर मंदिर किसी ख़ूबसूरत स्थान --जैसे किसी पहाड़ी पर या किसी झील के किनारे बने हुए हैं. गणपतिपुले का गणपति मंदिर या महाबलेश्वर का महाबलेश्वर मंदिर ऐसे ही मंदिरों में हैं. कुछ मंदिर महान संतों की जन्मस्थली या कर्मस्थली पर भी बने हैं जैसे आलंदी का ज्ञानेश्वर मंदिर. मंदिर भक्तों की सिर्फ़ आध्यात्मिक प्यास ही नहीं बुझाते, उनकी भौतिक ज़रूरतों का भी ख़याल रखते थे. पुराने समय में जब महिलाओं का घर से बाहर निकलना अच्छा नहीं समझा जाता था, तब उत्सवों के दौरान या विशेष त्योहारों के अवसर पर मंदिरों के पास लगनेवाले मेलों में महिलाएँ अपनी ज़रूरत की चीज़ों की ख़रीदारी कर लेती थीं. भगवान के दर्शनों के साथ-साथ किसी रमणीक स्थल की सैर का आनंद तो मिलता ही था. मंदिरों में अक्सर संगीत और कीर्तन के कार्यक्रम होते जिन्हें सुनने सारा परिवार एक साथ आता.
यह सही है कि आज मनोरंजन, सैर-सपाटे और ख़रीदारी के लिए तमाम दूसरी जगहें हैं इसलिए मंदिरों का इन कामों के लिए होनेवाला उपयोग अब कम हो गया है. लेकिन आज भी श्रद्धालुओं के मन में मंदिरों की एक ख़ास जगह है.
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