Tuesday, March 25, 2025

यादों के पिटारे से: मंगलसूत्र, बिंदिया और सिंदूर के बहाने

मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स के ५ जुलाई १९८९ के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ था. ज़ाहिर है, इसमें जिन सामाजिक परिस्थितियों का उल्लेख हुआ है, उनमें और आज के हालात में काफ़ी अंतर है. इसलिए इसे उसी परिप्रेक्ष्य में पढ़ा जाना चाहिए. अपने पुराने लेखों को अपने ब्लॉग पर संजो कर रखने के मेरे प्रयास की अगली कड़ी:


किसी पुरुष को देखकर क्या आप जान सकते हैं कि वह विवाहित है या नहीं? नहीं, क्योंकि विवाह के बाद पुरुष के रहन-सहन में या पहनावे में कोई अंतर नहीं आता. लेकिन विवाह के बाद महिला कई तरह के "सौभाग्यसूचक" चिन्हों से लाद दी जाती है. मसलन गले में मंगलसूत्र, कलाइयों में चूड़ियाँ, माथे पर बिंदिया, मॉंग में सिंदूर, पैरों में बिछिया-पायल आदि. पति की मृत्यु के बाद औरत के लिए इन चीज़ों का इस्तेमाल वर्ज्य हो जाता है. जबकि पत्नी की मृत्यु के बाद किसी पुरुष पर इस तरह का कोई प्रतिबंध नहीं लगता. 

हो सकता है कि कुछ महिलाएँ शौक से इन "सौभाग्यसूचक" चिन्हों का इस्तेमाल करती हों, तो कुछ सुन्दर और आकर्षक दिखने के लिए इनका सहारा लेती हों. कुछ यह सोचकर इन्हें अपनाती होंगी कि जब उनकी माँ, सास, नानी, दादी सभी ने यह किया है, तो उन्हें भी यही करना है. कुछ महिलाएँ समाज के डर से या इस डर से कि उन्होंने "सौभाग्यसूचक" चिन्ह नहीं पहने तो उनके पति का अनिष्ट होगा, इन्हें अपनाती होंगी. लेकिन इन सबसे हटकर जो औरतें इनकी अनिवार्यता के बारे में सवाल उठाती हैं, या इन्हें पहनने से इनकार करती हैं, वे आलोचना का शिकार बनती हैं. 

ऐसा नहीं है कि माथे पर बिंदिया लगाने से या गले में मंगलसूत्र पहनने से औरत को बड़ी भारी असुविधा होती हो. लेकिन उसे सोचने का मौका दिए बगैर, जब ये चीज़ें उस पर थोंप दी जाती हैं और उससे अपेक्षा की जाती है कि वह इन्हें दिन-रात, सोते-जागते अपने से अलग न करे, तो  ज़रूर कुछ असुविधा होती है. 

इस अनिवार्यता में से सवाल उठता है कि समाज में औरत की पहचान क्या सिर्फ़ अपने पति की वजह से होती है. यानी पति जीवित है तो पत्नी इन सौभाग्यसूचक अलंकरणों से सजी-धजी गुड़िया है और पति नहीं है तो इन सबसे विहीन बैरागिनी? इसी सिलसिले में एक घटना याद आ रही है. एक बुज़ुर्ग की ७५वीं वर्षगाँठ उनके बेटों-बहुओं ने बड़े ठाठ-बाठ से मनाई. इन बुज़ुर्ग की पत्नी को गुज़रे कई वर्ष हो चुके हैं. वर्षगाँठ के सिलसिले में कुछ धार्मिक रस्में अदा की गईं. इसके लिए एक पंडितजी बुलाए गए. जब इन बुज़ुर्ग ने पंडितजी के सामने अपना स्थान ग्रहण किया तो पंडितजी ने कहा, "श्रीमान, रस्म शुरू करने से पहले अपनी श्रीमतीजी को भी तो बुलाइए." इस पर वह बुज़ुर्ग जितने दुःखी और विचलित हुए वह तो सबने देखा. लेकिन शायद ही किसीने यह सोचा होगा कि ऐसी हालत में इनकी पत्नी यहाँ होती तो पंडितजी उन्हें अपने पति को बुलाने का आदेश नहीं देते क्योंकि उनकी वेषभूषा ही बता देती कि वह विधवा है.

महाराष्ट्र में किसी भी मुबारक़ मौक़े पर सौभाग्यवती महिलाएँ एक-दूसरे के माथे पर कुंकुम लगाती हैं. तीज-त्योहारों पर महिलाएँ अन्य सौभाग्यवती महिलाओं को अपने घर आमंत्रित करती हैं और तब भी कुंकुम का आदान-प्रदान होता है. दक्षिण भारत में भी ऐसी परम्परा है. पुराने ज़माने में जब औरतें घर से बाहर आती-जाती नहीं थीं, तब ऐसे मौक़ों के बहाने घर से बाहर निकलकर एक-दूसरे से मिल-जुल लेती थीं. लेकिन विधवाओं को ऐसे मौक़ों पर नहीं बुलाया जाता था और आज भी नहीं बुलाया जाता. बस, यही बात इस प्रथा की सारी अच्छाइयों पर पानी फेर देती है. क्या विधवाओं को अपनी हमउम्र स्त्रियों से मिलने-जुलने की या धार्मिक, सामाजिक आयोजनों में हिस्सा लेकर अपना मन बहलाने की ज़रूरत महसूस नहीं होती? पर ऐसे मौक़ों पर अलग रखकर उन्हें मानो बार-बार इस बात की याद दिलाई जाती है कि उनके पति जीवित नहीं हैं. इस तरह यदि उनके घावों पर लगातार नमक छिड़का जाता रहे तो वे अपने पति की मृत्यु के दुःख से कैसे उबर सकती हैं?

इसीलिए मंगलसूत्र पहनना या माँग में सिंदूर भरना बुरा नहीं है. बुरी हैं तो उनके साथ जुड़ी वे तमाम मान्यताएँ जो पति के जीवित या मृत होने के आधार पर औरत-औरत के बीच फ़र्क करती हैं. बुरे हैं तो वे प्रचलित विश्वास कि सौभाग्यसूचक चिन्ह धारण न करना अशुभ या अमंगल है. बुरी है तो वह आलोचना जिसकी शिकार अपनी इच्छा से सौभाग्यसूचक चिन्हों का त्याग करनेवाली सौभाग्यवती महिलाएँ होती हैं. 

औरत को औरत की तरह ही देखा जाना ज़रूरी है. पति के होने न होने से औरत की ओर देखने के नज़रिए में अंतर क्यों आना चाहिए? विधवाओं के केश काट देने की प्रथा जैसे धीरे-धीरे खत्म हुई है उसी तरह पति के जीवित रहते पत्नी द्वारा सौभाग्यसूचक चिन्हों के उपयोग और पति के मरने पर पत्नी द्वारा उन चिन्हों के त्याग को एक अनिवार्यता न बनाकर क्यों न इसे हर स्त्री की इच्छा पर छोड़ दिया जाए?

No comments:

Post a Comment