Wednesday, October 8, 2025

यादों के पिटारे से: पैठणी.... रेशम और सोने से बुनी गई कविता!

मेरा यह लेख पत्रिका वामा के अप्रैल १९८५ के अंक में प्रकाशित हुआ था.  

महाराष्ट्र की पैठणी साड़ी, साड़ी नहीं, अपने आप में एक आभूषण होती है. रेशम और सोने के पानी चढ़े धागों से बनी यह साड़ी शाही परिवारों की महिलाएँ पहनती थीं. महाराष्ट्र के धनी परिवारों की दुल्हनें पैठणी पहनने वाली गिनी-चुनी महिलाओं में होती थीं. पर्शिया के राजा भी अपनी शाही पोशाक पैठण के बुनकरों से बनवाते थे. 

लेकिन समय के साथ पैठणी साड़ी के रंग फ़ीके पड़ते गए. ज़री की चमक कम होने लगी. न तो शाही परिवार रह गए और न ही दुल्हनों को पैठणी साड़ियों में सजाने की परंपरा. अब कुछ ही परिवार रह गए हैं, जो पारम्परिक पैठणी साड़ियाँ बुनते हैं. 

पैठण, महाराष्ट्र के औरंगाबाद के निकट एक छोटा-सा क़स्बा है. यहीं पर ये साड़ियाँ बनती रही हैं और इसीलिए 'पैठणी ' कहलाती हैं. क़रीब दो हज़ार वर्ष पूर्व पैठण में पाँच सौ परिवार थे जो पैठणी बनाने की कला सिर्फ़ जानते ही नहीं थे, वही उनकी जीविका थी. पैठणी हथकरघे पर ही बनती है. किसी प्रकार की मशीन का इस्तेमाल इसमें नहीं होता. ज़री के धागों और रेशम को तिल्लियों पर लपेटकर रखा जाता है. और बुनकर धागे गिन-गिन कर उन्हें एक-दूसरे के साथ बुनते जाते हैं और बेहतरीन डिज़ाइन बनाते हैं. ज़ाहिर है, इसमें बहुत समय लगता है. 


इसीलिए पैठणी साड़ी बहुत महँगी होती है. शाही परिवारों के लुप्त हो जाने से और आम जनता में पैठणी (महाराष्ट्र में इसे सिर्फ़ पैठणी ही कहा जाता है, इसके साथ साड़ी नहीं जोड़ा जाता) की कोई माँग न होने से पैठणी उद्योग मंदा हो गया. बुनकरों ने अपना परिवार चलाने के लिए जीविका के दूसरे साधन अपना लिए. जो बुनकर बच गए थे, वे भी किस उम्मीद से पैठणी बनाते?

लेकिन शुक्र है, पैठणी उद्योग पूरी तरह से नष्ट नहीं हुआ. महाराष्ट्र लघु उद्योग विकास निगम ने अब यह उद्योग अपने हाथ में ले लिया है और क़रीब नौ-दस परिवारों के १६-१७ लोग (जिसमें दो-तीन महिलाएँ भी हैं) अब इस निगम के कर्मचारियों के रूप में पैठणी बनाते हैं. 

पिछले दिनों नई दिल्ली में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेले के महाराष्ट्र पैवेलियन में पैठणी साड़ियाँ प्रदर्शित की गई थीं. साथ ही पैठण से विशेष रूप से श्री प्रभाकर अम्बादास दालकरी को लाया गया था जो ज़री और रेशम का एक शॉल दर्शकों के सामने बना रहे थे. उन्होंने यह कला अपने पिता से सीखी, जो आज ८० वर्ष की उम्र में भी साड़ियाँ बनाते हैं. 

श्री दालकरी ने बताया कि सादी से सादी पैठणी बनाने में एक व्यक्ति को क़रीब दो महीने लग जाते हैं. वह भी तब जब वह दिन में १२ घंटे काम करे. अधिक अच्छी यानी चौड़े बॉर्डर वाली और ज़री के ज़्यादा काम वाली साड़ी बनाने में आठ महीने भी लग सकते हैं. इन दिनों तो धागों पर चाँदी का पानी चढ़ा कर ही ज़री बनाई जाती है और उसे सोने का रंग दिया जाता है. श्री दालकरी ने बताया कि असली सोने की ज़री अब नहीं बनती. ज़री सूरत में बनती है और उसकी क़ीमत तीन हज़ार से साढ़े पाँच हज़ार रुपए प्रति किलो होती है. सादी पैठणी में भी क़रीब दो सौ ग्राम ज़री होती है और पाँच सौ ग्राम रेशम. रेशम बंगलूर से आता है. सादी पैठणी की क़ीमत कम से कम तीन हज़ार रुपए होती है. २० हज़ार की भी पैठणी बनती है. तीन हज़ार रुपए की साड़ी बनाने वाले कलाकार को क़रीब आठ सौ रुपए मिलते हैं. पैठणी की उम्र बहुत लम्बी होती है. सौ साल पुरानी साड़ियाँ अब भी कुछ महाराष्ट्रीय परिवारों के पास हैं. 

पैठणी के बारे में एक और बात ग़ौर करने लायक है. इसका पल्ला पारम्परिक ढंग से लाल ही रंग का हो. लाल रंग के साथ ही ज़री सबसे ज़्यादा फबती है. और इसीलिए साड़ी और बॉर्डर के साथ मैचिंग का ख़्याल न रखकर पल्ला हमेशा लाल रंग का ही बनाया जाता है. 

अब ये साड़ियाँ केवल ऑर्डर पर बनती हैं. महाराष्ट्र लघु उद्योग विकास निगम ऑर्डर स्वीकार करता है. निगम दिसंबर में पैठण में ही एक प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना कर रहा है, जिसमें श्री दालकरी नए लोगों को पैठणी बुनने का प्रशिक्षण देंगे. 

निगम के पास फ़िलहाल जितने ऑर्डर हैं, वे अगले तीन वर्षों तक कर्मचारियों को व्यस्त रखेंगे. गुजरात से भी पैठणी के काफ़ी ऑर्डर आते हैं. १९८१ में पूरे वर्ष में ५३ साड़ियाँ बन पाई थीं. अब इससे अधिक साड़ियाँ बनाने की निगम की योजना है. पैठणी बनाना अपने आप में एक अनोखी कला है. इसे नष्ट होने से बचाना एक अच्छी बात है. 

Saturday, October 4, 2025

यादों के पिटारे से: गाँव-गाँव बिखरी सांस्कृतिक विरासत

 मेरी यह पुस्तक समीक्षा १० फरवरी १९९० के नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुई थी. 

चौपाल यदि हमारे गाँवों के सामाजिक केंद्र थे तो मंदिर धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र. मंदिर सिर्फ़ वह इमारत नहीं होती जिसमें भगवान की मूर्ति प्रतिष्ठित होती है, इस इमारत का एक-एक पत्थर उस बीते युग की कहानी सुनाता है जिसके ये पत्थर गवाह रहे हैं.

महाराष्ट्र की सांस्कृतिक विरासत बहुत समृद्ध है जो आज भी इस प्रदेश में गाँव-गाँव बिखरे मंदिरों के रूप में अपनी सम्पन्नता का अहसास कराती है. बीते दिनों की शिल्पकला, वास्तुकला आदि का अध्ययन करने के लिए मंदिर बहुत अच्छा माध्यम साबित हो सकते हैं. महाराष्ट्र सूचना केंद्र ने हाल ही में ' द टेम्पल्स ऑफ़ महाराष्ट्र' (महाराष्ट्र के मंदिर) नामक एक सचित्र पुस्तक प्रकाशित की है जो महाराष्ट्र के प्रमुख मंदिरों की एक परिचयात्मक झलक पेश करती है. 


इसमें ३१ मंदिरों के बारे में जानकारी है जो बहुत विस्तृत तो नहीं, लेकिन इतनी संक्षिप्त भी नहीं है कि महज एक नोटनुमा लगे. इसमें मंदिर की बनावट का ज़िक्र है तो उसकी भौगोलिक स्थिति का भी. साथ ही मंदिर का इतिहास, उससे जुड़े किस्से-कहानियाँ, उसमें प्रतिष्ठित देवी-देवताओं के बारे में जनमानस में प्रचलित विश्वास आदि हैं. 

लेखक गोपाल कृष्ण कान्हेरे ने १७ वीं और १९ वीं शताब्दी के दौरान मराठा काल में बने मंदिरों पर ज़्यादा ज़ोर दिया है. इन मंदिरों में विभिन्न शैलियों का मिश्रण देखा जा सकता है जो स्थानीय शैली के साथ मिलकर मराठा वास्तुकला के रूप में सामने आई. पुणे के पेशवाओं ने तो कुछ मंदिरों में मीनारें तक बनवाईं. ज़ाहिर है यह इस्लामी वास्तुकला का प्रभाव था. रायगढ़ के एक मंदिर परिसर में शिवाजी महाराज ने भी छोटी-छोटी मीनारें बनवाई थीं. 

ये मंदिर सिर्फ़ स्मारक ही नहीं, इनमें से ज़्यादातर ऐसे जीवंत भवन हैं जहाँ आज भी पारम्परिक उल्लास के साथ त्योहार मनाए जाते हैं. मंदिरों में बजनेवाले ढोल, नगाड़ों और शहनाई के सुरों में, वहाँ से उठनेवाली फूल और अगरबत्तियों की ख़ुशबू में और वहाँ बँटनेवाले प्रसाद की मिठास में आज भी ऐसी ज़बरदस्त कशिश है कि साल-दर-साल तीर्थयात्री और पर्यटक इन मंदिरों की ओर खींचे चले आते हैं. 

हर मंदिर मुख्यतः तीन हिस्सों में बँटा होता है__एक बड़ा हॉलनुमा कमरा जो सभामंडप कहलाता है, दूसरा अंतराल जो छोटा होता है और सबसे अंदर होता है गाभारा जहाँ देवी या देवता की मूर्ति प्रतिष्ठित होती है. इसी हिस्से के ऊपर शंकु के आकार का ऊँचा शिखर होता है जिस पर अंदर-बाहर से पच्चीकारी, चित्रकारी के सुन्दर नमूने देखे जा सकते हैं. ज़्यादातर मंदिर राजे-रजवाड़ों ने बनवाए और मंदिरों को सुन्दर बनाने के लिए अच्छे से अच्छे कलाकारों की मदद ली. इन कलाकारों की मेहनत से सजे मंदिरों को कई बार मुस्लिमों के हमलों का शिकार होना पड़ा. कुछ मंदिर तो कई बार टूटे और कई बार बने. शायद हमलों से बचाव के लिए ही पुणे के पर्वती और जेजुरी तथा शिखर शिंगणापुर के मंदिरों के इर्दगिर्द किले की तरह दीवार बनी है. 

ज़्यादातर मंदिर किसी ख़ूबसूरत स्थान --जैसे किसी पहाड़ी पर या किसी झील के किनारे बने हुए हैं. गणपतिपुले का गणपति मंदिर या महाबलेश्वर का महाबलेश्वर मंदिर ऐसे ही मंदिरों में हैं. कुछ मंदिर महान संतों की जन्मस्थली या कर्मस्थली पर भी बने हैं जैसे आलंदी का ज्ञानेश्वर मंदिर. मंदिर भक्तों की सिर्फ़ आध्यात्मिक प्यास ही नहीं बुझाते, उनकी भौतिक ज़रूरतों का भी ख़याल रखते थे. पुराने समय में जब महिलाओं का घर से बाहर निकलना अच्छा नहीं समझा जाता था, तब उत्सवों के दौरान या विशेष त्योहारों के अवसर पर मंदिरों के पास लगनेवाले मेलों में महिलाएँ अपनी ज़रूरत की चीज़ों की ख़रीदारी कर लेती थीं. भगवान के दर्शनों के साथ-साथ किसी रमणीक स्थल की सैर का आनंद तो मिलता ही था. मंदिरों में अक्सर संगीत और कीर्तन के कार्यक्रम होते जिन्हें सुनने सारा परिवार एक साथ आता. 

यह सही है कि आज मनोरंजन, सैर-सपाटे और ख़रीदारी के लिए तमाम दूसरी जगहें हैं इसलिए मंदिरों का इन कामों के लिए होनेवाला उपयोग अब कम हो गया है. लेकिन आज भी श्रद्धालुओं के मन में मंदिरों की एक ख़ास जगह है. 

Monday, September 15, 2025

"Ullozhukku": An Emotional Undercurrent!

The torrential rains play as important a role in "Ullozhukku" (The Undercurrent) as do the two female leads. The 2024 Malayalam film shot on location in the backwaters of Kerala soaks the viewers not only in floods of water, but also in an outpouring of emotions as they witness the journey of Anju and Leelamma, the daughter-in-law and mother-in-law portrayed wonderfully by the very talented team of Parvathy Thiruvothu and Urvashi respectively. The story of the duo's intertwined relationship is at the centre of this brilliantly crafted film.

The pounding rain has been used very effectively by writer and director Christo Tomy. The continuous onslaught of sheets of water drenching Leelamma's house and its surroundings makes the viewers uneasy. The rain also serves as an apt metaphor for the emotional turmoil of the two lead players. It starts moderately, turns into a huge downpour and then starts clearing towards the end. 

What makes the film stand out is the fact that this is Tomy's debut feature filmIt has received critical acclaim and awards. It won the National Film Award for Best Malayalam Feature Film. Urvashi bagged the same for Best Actress in a Supporting Role. The film also won Kerala State Film Awards in several categories.

Anju works as a saleswoman in a saree shop. She is in love with Rajeev who does not have a secure job. Anju is married off to a well-to-do Thomaskutty by her parents. As she is trying to come to terms with her new life in this loveless marriage, Thomaskutty's failing health makes her take on the role of a caretaker for her new husband. The couple lives with Thomaskutty's mother Leelamma in a comfortable house in a flood-prone area. The two women linked by the ailing Thomaskutty get entangled in a stormy relationship where secrets tumble out changing the dynamics of the equation between them multiple times. 

Tomy has handled this part with a lot of care, giving each character enough time to project themselves. Also, he has written his characters very well. At times, the narration may seem to be slow, but then the characters are so well fleshed out that it is a pleasure watching them on the screen. No scheming, no plotting, no exaggerated expressions, no melodrama...pure storytelling at its best. The narration is layered, the characters are neither black, nor white, but a graceful grey and hence very believable. The verdant landscape of Kerala is a treat to the eyes, although at times the water in and around the house is unsettling. The boat trips the characters make to get to the mainland are a visual delight. 

The two male actors playing Rajeev and Thomaskutty have smaller roles and they are good at it. The cinematography is superb and the music is appropriately understated. 

I recommend this film to those who enjoy meaningful cinema. It is streaming on Prime Video. I watched it in original Malayalam with subtitles in English. If I could follow the dialogues in Malayalam, it would have added another dimension to my appreciation of the film. 

And finally, some trivia. Parvathy Thiruvothu was seen with Irrfan Khan in the 2017 romantic comedy "Qarib Qarib Singlle" and with Pankaj Tripathi in the 2023 psychological thriller "Kadak Singh". Urvashi acted in 1988 political thriller "New Delhi". Both of them have worked largely in Malayalam, Tamil, Kannada and Telugu cinema.

Wednesday, September 10, 2025

On The Trail With Inspector Zende!

"Inspector Zende" streaming on Netflix has been generally labelled as a comedy/thriller. The 112-minute long film features Manoj Bajpayee--a very intense actor who has played a cop many times during his remarkable career--in the titular role of inspector Madhukar Bapurao Zende of the Mumbai Police who had the rare distinction of catching the infamous serial killer, fraudster and thief Charles Sobhraj not once, but twice. Here Bajpayee appears in a lighthearted comic avatar. Jim Sarbh essays the role of Charles Sobhraj, who for some reason has been named Carl Bhojraj in the film.


The film opens with the news of Bhojraj's escape from Tihar Jail in 1986 after he treated the jail staff to kheer laced with sedative as a part of his birthday celebration. Zende had arrested him once earlier in 1971, so he gets assigned with the job of tracking Bhojraj.

As the hunt starts, visuals from Mumbai and Goa of the eighties do look delightful and refreshing. Zende, his teammates and their boss DGP Purandare (Sachin Khedekar), Zende's wife (Girija Oak), children and his mother, all of them look innocent straightforward people. It is endearing to see the policemen working without any modern security or surveillance equipment, and on a meagre budget. But the same cannot be said about Jim Sarbh's Bhojraj. He does not appear menacing enough to be an international serial killer. His long hair, moustache, and laboured accent reduce him to being a caricature, far from being the charmer that he was in real life. 

Chinmay Mandlekar, a well-known writer, director and actor mostly active in the Marathi entertainment industry has written and directed "Inspector Zende". Why he chose to make a film that focuses on the chase of a serial killer as a comedy is something beyond comprehension. The subject and its treatment do not match each other. 

While the film is mostly clean and suitable for family audiences, it is a pity to see an actor of Bajpayee's calibre being wasted in an average story and script. The jokes are weak, the direction is simplistic and the pace of the film is slow. This does not mean that Bajpayee is not suitable for comedy. It is just that a tame comedy is not enough to tap into his potential. 

To name a few instances from the film, police teams from Delhi, Goa and Mumbai clashing over claiming the capture of Bhojraj is mindless and childish. The fight sequence between Zende and Bhojraj in the middle of couples dancing in a hotel is funny, but it dilutes the importance of the moment and reduces it to a farce. Bhalchandra Kadam, a prominent comedian from Marathi industry playing one of Zende's teammates fails to make an impact. After watching the film, one is left with the impression that sometimes even when you have all the right ingredients, a tasty dish eludes you.

Wednesday, April 9, 2025

यादों के पिटारे से: बहू -बेटी की मौत से पुण्य कमाने वाले समाज से कुछ सवाल

 मेरा यह लेख २७ सितम्बर, १९८७ के नवभारत टाइम्स में रविवार्ता के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित हुआ था. 

अठारह वर्षीया रूपकँवर दुल्हन के वेश में कितनी सुंदर लग रही थी! सिर से पैर तक गहनों से लदी, नखशिखांत श्रृंगार के साथ. लेकिन वह विवाह की वेदी पर नहीं, अपने पति की चिता पर चढ़ने जा रही थी--उसके साथ जलकर भस्म होने के लिए. 

राजस्थान के सीकर जिले के दिवराला गाँव में अभी आठ महीने पहले ही तो रूपकँवर दुल्हन बनकर आई थी. अपने पिता के घर से भरपूर दहेज के साथ. २५ तोला सोना, टेलीविजन, रेडियो, पंखे, फ्रिज... क्या नहीं लाई थी वह अपने साथ! एक सुखी गृहस्थी का सपना आँखों में लिए रूपकँवर ने अपने पति मानसिंह के घर में कदम रखा था. ज़िंदगी अपनी तरह चल रही थी कि अचानक सितम्बर की पहली तारीख़ को मानसिंह को उल्टी -दस्त होने लगे. उसे सीकर के सरकारी अस्पताल में दाखिल कराया गया. लेकिन चार सितम्बर का दिन उसकी ज़िंदगी का आख़री दिन रहा. मानसिंह की मृत्यु के साथ ही रूपकँवर ने सती होने की इच्छा व्यक्त की. उसके परिवारवालों ने न तो इसका विरोध किया और न ही इसकी ख़बर किसीको होने दी. 

आज... यदि प्रधानमंत्री के घिसे-पिटे मुहावरे का उपयोग किया जाए तो... जब देश २१वीं सदी में प्रवेश करने को तैयार है तब रूपकँवर द्वारा सदियों पुरानी इस प्रथा का पालन करना कई सवाल खड़े करता है. एक तो यह कि दसवें दर्जे तक पढ़ी रूपकँवर को पति की मृत्यु के बाद सती होने के अलावा और कोई रास्ता क्यों नज़र नहीं आया? दूसरे यह कि उसकी ससुरालवालों ने इसका विरोध क्यों नहीं किया? --इस संदर्भ में कहीं यह दहेज हत्या का दूसरा रूप तो नहीं, या क्या उसकी ससुरालवाले इतने अंधविश्वासी हैं कि बहू की मौत में ही उन्हें अपना पुण्य नज़र आया; या बहू के सती होने में उन्हें अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाने का आसान रास्ता दिख गया? तीसरे यह कि क्या प्रशासन और क़ानून पूरी तरह से अंधे-बहरे हो गए हैं जो रूपकँवर को सती होने से रोक नहीं सके? (पुलिस द्वारा कुछ महिलाओं को सती होने से रोकने की ख़बरें पहले मिली हैं लेकिन यहाँ पुलिस का कहना है कि उन्हें कोई सूचना ही नहीं मिली) और चौथा सवाल उन हज़ारों -हज़ार लोगों को लेकर है जो रूपकँवर का सती होना एक तमाशे की तरह देखते रहे, लेकिन उसे रोकने के लिए कुछ नहीं कर सके. 

इन सवालों के स्पष्ट जवाब शायद कभी न मिल पाएँ लेकिन इनका उठना निरर्थक नहीं है. इनके जवाब ढूँढ़ने की कोशिश की जाए तो आधुनिकता का दंभ भरनेवाले समाज का वह बदबूदार पिछवाड़ा दिखता है जो हर तरह की गंदगी से पटा पड़ा है और जिसे साफ़ करना कोई नहीं चाहता. 

हो सकता है, विधवा की कलंकित ज़िंदगी जीना रूपकँवर को रास न आता नज़र आया हो और उसने अपने ज़िंदगी का अंत कर लेने में ही अपनी भलाई समझी हो. रूपकँवर के मामले में बात करते हुए सीकर जिले के ही एक ग्रामीण ने कहा, 'हमारे समाज में विधवा को कुलच्छनी माना जाता है. उसे नंगे पैर चलना पड़ता है, ज़मीन पर सोना पड़ता है. वह घर से बाहर नहीं निकल सकती और किसी पुरुष से बात भी नहीं कर सकती. ऐसी ज़िंदगी जीने से तो अच्छा हुआ वह मर ही गई.'

रूपकँवर के पिता भी कोई अनपढ़, गँवार ग्रामीण नहीं हैं. जयपुर में उनकी एक ट्रांसपोर्ट एजेंसी है. लेकिन अपनी बेटी के सती होने पर वह कहते हैं, 'रूपकँवर के त्याग ने हमारे दोनों ख़ानदानों को अमर बना दिया है. मेरी बेटी तो अब 'देवी' बन गई है जिसकी हज़ारों श्रद्धालु पूजा करेंगे.' वह प्रसन्न हैं कि उनकी बेटी ने उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाई है. 

जब सती हो गई महिला के परिवारवाले, उसकी ससुरालवालों के साथ उसके पिता भी अपनी बेटी के बलिदान को लेकर इतने प्रसन्न हैं, तो इस घटना के लिए क़ानून और प्रशासन को दोष देने से पहले एक बार सोचना पड़ता है. अदालत का क़ानून और सरकार का निर्देश जनता के लिए क्या मायने रखता है, यह तो उसी समय पता चल गया कि जब सती के १३ दिनों बाद होने वाले चूंदड़ी महोत्सव को सरकारी आदेश की धज्जियाँ उड़ाते हुए किसी त्योहार की-सी धूमधाम से मनाया गया. राजस्थान के कुछ महिला संगठनों की अपील पर राजस्थान उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को निर्देश दिया था कि रूपकँवर की चूंदड़ी चढ़ाने की रस्म पर समारोह न होने दिया जाए. इसके बावजूद लाखों लोगों की मौजूदगी में रूपकँवर की चिता पर सुहाग की प्रतीक चूंदड़ी चढ़ाई गई. यह चूंदड़ी चार हज़ार एक सौ रूपए की बताई जाती है और इसे रूपकँवर के मायकेवाले लाए थे. इस समारोह का तय समय से दो घंटे पहले ही हो जाना, समारोह के दौरान सती-स्थल पर पुलिस की गैर-मौजूदगी, समारोह स्थल पर गाँव के स्वयंसेवकों का हुक्म और राजपूत नौजवानों का चिता के आसपास नंगी तलवारें लिए लगातार परिक्रमा करना यह बताता है कि जिस बात को आम आदमी का जबरदस्त समर्थन हो, उसे रोकना क़ानून और सरकार के बस की बात नहीं।

लेकिन इस बात को आम आदमी का इतना जबरदस्त समर्थन मिलने के क्या कारण हो सकते हैं? इसका जवाब ढूँढ़ने के लिए हमें उन मान्यताओं, विश्वासों, अंधविश्वासों की पड़ताल करनी होगी जो सदियों से हमारे यहाँ बच्चों को घुट्टी में पिलाए जाते हैं. हमारे यहाँ मृत्यु को जीवन का अंत न मानकर मोक्ष प्राप्त करने की ओर बढ़ाया गया एक कदम माना जाता है. यहाँ महिलाएँ साल-दर-साल एक विशेष दिन व्रत रखती हैं कि अगले जन्म में भी उन्हें यही पति मिले. यहाँ यह माना गया है कि मृत्यु के बाद की दुनिया में भी व्यक्ति को वही सब मिले जो इस जन्म में उसे सुख-शांति देता रहा है. पति के साथ जल मरने को पतिव्रत्य का महानतम उदाहरण माना गया. इन 'अलौकिक' कारणों के साथ कुछ लौकिक कारण भी समय-समय पर इससे जुड़ते गए जैसे कि घर-परिवार में विधवा के साथ होनेवाले व्यवहार को देखकर कुछ महिलाओं ने सती होने का निर्णय किया हो या जैसे मुग़लों के भय से, आत्मसम्मान की रक्षा की ख़ातिर राजपूत महिलाओं ने जौहर (सामूहिक सती) किया. 

इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि सती एक सामाजिक मान्यता है. हमारे यहाँ के किसी शास्त्र में इस प्रथा का उल्लेख नहीं है. ऋग्वेद और अथर्ववेद में ज़रूर ऐसी प्रथा के संकेत मिलते हैं. गरुड़पुराण और भागवतपुराण में भी सती का उल्लेख है. लेकिन हर घर में सती प्रथा का पालन होता था, ऐसा नहीं है. बल्कि समय-समय पर इसे रोकने की कोशिश भी होती रही. अकबर और जहांगीर ने सती प्रथा को दबाया. फिर आगे चलकर अंतिम पेशवा बाजीराव और मराठा महारानी अहिल्याबाई ने भी लोगों में सती प्रथा के खिलाफ जागरूकता फैलाई. अंत में राजा राममोहन राय के प्रयासों के फलस्वरूप लॉर्ड विलियम बेंटिंक ने सन १८२९ में सती प्रथा पर निषेध लगा दिया. 

लेकिन एक बात ग़ौर करने लायक है --सती प्रथा को सिर्फ़ हिन्दू मान्यताओं ने ही जन्म दिया हो--ऐसा नहीं है. एशिया के अलावा अमेरिका, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया में भी मृत व्यक्ति के साथ उसकी पत्नी/पत्नियाँ, ग़ुलाम, क़ैदी और घोड़े जलाए या दफ़नाए जाते थे. लेकिन भारत में इसे जैसा सामाजिक समर्थन मिला, उसके चलते निषेध लगने के १५८ साल बाद आज भी सती हो जाने के इक्का-दुक्का उदाहरण मिल ही जाते हैं. 

इसी सिलसिले में रूपकँवर का सती होना हमें फिर एक बार अपनी सामाजिक व्यवस्था को जाँचने के लिए कहता है--ऐसी व्यवस्था जहाँ अभी यह माना जाता है कि पति के बाद पत्नी का कोई स्थान नहीं है--न परिवार में, न समाज में. जब तक यह मान्यता नहीं बदलती, तब तक कोई विधवा चाहे घुट-घुटकर जीने को मजबूर की जाए, चाहे पति के साथ जलकर मर जाए--शायद कोई फ़र्क नहीं पड़ता. 

Monday, April 7, 2025

"यादों के पिटारे से: 'मेरा चुनाव लोगों ने ही लड़ा'---सुमित्राजी

भारतीय जनता पार्टी की वरिष्ठ नेता सुमित्रा महाजन २०१४ से २०१९ तक लोकसभा की स्पीकर रहीं. वह  १९८९ से २०१९ तक लगातार इंदौर लोकसभा क्षेत्र से भाजपा की प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीतीं. उनकी छवि एक कुशल और साफ़-सुथरी नेता की रही है. मुझे १९८९ में दिल्ली में उनसे मिलने का और बातचीत करने का मौक़ा मिला. उस समय उन्हें पहली बार सांसद बनकर कुछ महीने ही हुए थे. वह एक आम मध्यवर्गीय मराठीभाषी महिला की तरह बहुत सादगी से मुझसे मिलीं. उनकी सादगी वरिष्ठ नेता बनने के बाद भी क़ायम रही.सुमित्राजी इंदौर में 'ताई' के नाम से लोकप्रिय हैं. आज यदि मैं उनके बारे में लिखती तो उन्हें ताई ही कहती.  २४ दिसंबर १९८९ के नवभारत टाइम्स में स्तम्भ 'नए चेहरे' के अंतर्गत मेरी उनके साथ की गई बातचीत प्रकाशित हुई थी. आज उसीको अपने ब्लॉग पर संजो कर रख रही हूँ. 

इंदौर से भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर लोकसभा के लिए चुनी गईं सुमित्रा महाजन के बारे में सबसे पहली बात तो यह कि उन्होंने करीब चार साल तक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री और केंद्र सरकार में एक समय गृह, रेल और पेट्रोलियम एवं रसायन जैसे विभागों के मंत्री रह चुके कांग्रेसी दिग्गज प्रकाशचंद सेठी को हराया है. करीब तीन साल पहले दिल्ली से बम्बई बात कर रहे श्री सेठी का फोन अचानक कट जाने पर उनके आधी रात किदवई भवन ट्रंक एक्सचेंज पहुँचने, वहाँ गाली-गलौज करने, पिस्तौल निकाल लेने और ड्यूटी पर तैनात महिला कर्मचारियों के साथ दुर्व्यवहार करने की ख़बरें उस वक़्त सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से छपी थीं. खबर यह भी थी कि श्री सेठी मानसिक असंतुलन के शिकार हैं. ट्रंक एक्सचेंज वाली घटना की तरह कुछ और घटनाएँ भी हुईं जिन्होंने मानो उनके मानसिक असंतुलन वाली बात की पुष्टि कर दी. 

पिछले कुछ दिनों में सेठीजी ख़बरों में नहीं के बराबर थे तो लगा कि वे राजनीति के वानप्रस्थ काल में पहुँच गए हैं. ऐसे व्यक्ति को इंदौर से टिकट देकर कहीं कांग्रेस ने स्वयं ही इंदौर में अपनी हार को न्यौता तो नहीं दिया था? इस सवाल के जवाब में सुमित्राजी कहती हैं: 'नहीं, नहीं. सेठीजी जीत भी सकते थे. हो सकता है मेरी बजाय कोई और उनका सामना करता तो जीत ही जाते. यूँ जीत के प्रति आश्वस्त तो कोई नहीं होता... मैं भी नहीं थी. आख़िर सेठीजी इससे पहले जीतते ही तो आए हैं.'

जीत के प्रति आश्वस्त होना तो दूर, सुमित्राजी बताती हैं कि लोकसभा चुनाव लड़ने का उनका कोई ख़ास इरादा भी नहीं था. लेकिन पार्टी की इच्छा थी इसलिए वह चुनावी मैदान में उतरीं. उनकी उम्मीदवारी की ख़बर सुनकर कई लोगों के मन में यह सवाल आया और कुछ ने तो उनसे पूछा भी कि सेठीजी चुनाव पर जितना खर्च कर सकते हैं उसका मुक़ाबला न तो आप कर सकती हैं, न ही आपकी पार्टी. फिर उनका सामना आप कैसे करेंगी? सुमित्राजी का जवाब होता था--आप देखिए, लोग मुझे वोट भी देंगे और नोट भी देंगे. और यही हुआ भी. लोग आते और सुमित्राजी से कहते: सुमित्रा ताई ( दीदी के लिए मराठी शब्द), हमारे घर में दस वोट हैं, ये लीजिए दस रूपए.' तो एक तरह से मेरा चुनाव लोगों ने ही लड़ा. युवाओं ने, महिलाओं ने मेरे लिए बहुत काम किया.' सुमित्राजी अपने कार्यकर्ताओं के प्रति अभिभूत होकर बताती हैं. 

वैसे अपनी पार्टी और उसके उम्मीदवारों के लिए सुमित्राजी भी काफ़ी काम करती रही हैं. इमर्जेंसी के बाद १९७७ में जब कुछ लोगों ने जेल के भीतर से ही चुनाव लड़ा तब सुमित्राजी उनके समर्थन में बहुत सक्रिय रहीं. १९८५ के विधानसभा चुनाव में सुमित्राजी ने पहली बार अपनी क़िस्मत आजमाई लेकिन उस समय उन्हें हराकर कांग्रेस के महेश जोशी विधायक बने. 

सुमित्राजी विधायक नहीं बन सकीं लेकिन वह एक अर्से से इंदौर में धार्मिक और सामाजिक प्रवचनकार के रूप में जानी जाती रही हैं. धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या करने की उनकी रोचक और रसपूर्ण शैली इंदौर के मध्यवर्गीय मराठीभाषी परिवारों में काफ़ी लोकप्रिय है. यही मध्यवर्गीय मराठीभाषी परिवार इंदौर के मतदाताओं का काफ़ी बड़ा हिस्सा बनाते हैं. इनके बीच सुमित्राजी की छवि एक ऐसी साफ़-सुथरी मध्यवर्गीय गृहिणी की है, जो राजनीति की कालिख और गंदगी से बहुत दूर है. ' लेकिन मैं राजनीति में हूँ और अपनी जीत के बाद अब दावे से कह सकती हूँ कि राजनीति में अभी भी साफ़-सुथरे लोगों के लिए जगह है, और यह भी कि सिर्फ़ पैसे के बल पर ही चुनाव नहीं जीते जाते. '

सुमित्राजी लोकसभा में इंदौर का प्रतिनिधित्व करेंगी, लेकिन वह मूलतः इंदौर की नहीं हैं. इंदौर इनकी ससुराल है और शादी के बाद पिछले २४ वर्षों से वे इंदौर में रह रही हैं. महाराष्ट्र के एक कस्बे चिपलूण में पली-बढ़ीं सुमित्राजी ने मैट्रिक तक की पढ़ाई चिपलूण में ही की. फ़िर बम्बई आ गईं. माता-पिता की मृत्यु बहुत जल्दी हो गई थी. शादी के बाद अपने पति और परिवार की मदद से सुमित्राजी ने बी. ए. की शिक्षा पूर्ण की. मनोविज्ञान में एम. ए. किया, एल. एल. बी. भी किया. इसी बीच वह दो बेटों की माँ बनीं. अपने बेटों की परवरिश और परिवार की जिम्मेदारी के साथ-साथ शहर के सांस्कृतिक, सामाजिक, साहित्यिक परिवेश में सक्रिय रहीं और अब जब बेटे बड़े हो गए हैं( बड़ा बेटा इंजीनियर है और छोटा बी. एस-सी. के दूसरे साल में है) तब सुमित्राजी देश के सर्वोच्च सदन में इंदौर का प्रतिनिधित्व कर रही हैं. 

सुमित्राजी प्रदेश महिला मोर्चा की महामंत्री हैं. साथ ही बाल संरक्षण गृह, अनाथालय, महिला सुधार गृह जैसी संस्थाओं की समिति की सदस्या हैं. पिछले दिनों इन्होंने अहिल्या मातृशक्ति संवर्धन केंद्र का गठन किया है जहाँ पीड़ित महिलाओं को कानूनी सहायता दी जाएगी. तलाक़ के मामले, दहेज़ के मामले आदि भी सुलझाए जाएँगे। कामकाजी औरतों के बच्चों के लिए झूलाघर शुरू किया है. वैसे तलाक़ के मामलों में सुमित्राजी अपने पति (जो कि वकील हैं) की भी सहायता करती रही हैं. उनकी कोशिश रहती है कि कोर्ट में जाने से पहले ही किसी तरह मामला सुलझ जाए. 

इंदौर के करीब देवास और पीथमपुर में कई उद्योगों के खुलने से इंदौर प्रदेश का सबसे बड़ा औद्योगिक क्षेत्र हो गया है, लेकिन उस हिसाब से वहाँ विकास उतना नहीं हुआ है जितना होना चाहिए. पानी की समस्या यहाँ की एक बड़ी समस्या है. सुमित्राजी नर्मदा योजना का दूसरा चरण शीघ्र पूरा कराने का प्रयास करेंगी. शहर की आबादी और वाहनों की संख्या के अनुपात में वहाँ की सड़कें बहुत सँकरी हैं. इस समस्या का समाधान शहर के बाहरी किनारों पर रिंग रोड बनवा कर किया जा सकेगा.

एक समय अपने कपड़ा उद्योग के लिए प्रसिद्ध इंदौर की कई मिलें बीमार पड़ी हैं जिसके कारण बेरोज़गारी बढ़ी है. सुमित्राजी की कोशिश रहेगी कि इन बीमार मिलों को शुरू कराया जाए. आसपास के गाँवों तक पक्की सड़कें नहीं तो कम-से-कम पहुँच-मार्ग बनें. सुमित्राजी का मानना है कि जब सांसद और विधायक साथ मिलकर काम करेंगे, तब ही अपने क्षेत्र के लिए कुछ ठोस उपलब्धियाँ हासिल कर पाएँगे.

सुमित्राजी काफ़ी आशावान हैं. १९६७ और १९७७ को छोड़कर हमेशा कांग्रेसी उम्मीदवार को लोकसभा भेजनेवाले इंदौर ने पहली बार भारतीय जनता पार्टी की प्रत्याशी को दिल्ली भेजा है. १९६७ में सिटीजन्स फोरम के होमी दाजी (अब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में) और १९७७ में जनता पार्टी के कल्याण जैन (अब जनता दल में) इंदौर से निर्वाचित हुए थे. अब यदि इंदौर की जनता ने इस ४६-वर्षीया 'गृहिणी' को करीब एक लाख १२ हजार मतों से जिताया है तो इसी उम्मीद के साथ कि वह उनकी घरों को, उनके नगर को अपने कुशल हाथों से सँवारेंगी. 

Friday, April 4, 2025

यादों के पिटारे से: आधुनिक बालाओं को पुरातनी सीख

मेरा यह लेख १२ नवम्बर, १९९२ के नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुआ था. इसमें लिखी कुछ बातें शायद आज के माहौल में विसंगत लगें, लेकिन यह तीन दशक अधिक से पहले लिखा गया था और इसलिए इसे उसी परिप्रेक्ष्य में पढ़ा जाना चाहिए. अपने पुराने लेखों को अपने ब्लॉग पर संजो कर रखने की मेरी कोशिश की अगली कड़ी है यह पोस्ट: 

महिलाओं की एक अंग्रेज़ी पत्रिका के सितम्बर अंक में टीनएज (१३ से १९ वर्ष की उम्रवाली) लड़कियों को एक अनमोल सलाह दी गई है. एक पन्ने के इस लेख में बताया गया है कि किस तरह लड़कियाँ अपने बॉयफ्रेंड को किसी दूसरी लड़की की ओर आकर्षित होने से रोक सकती हैं. इससे पहले कि इस लेख पर कोई टिप्पणी की जाए, ज़रा पढ़ लीजिए कि यह लेख आख़िर कहता क्या है--

"लड़कियों, लड़के आख़िर लड़के ही हैं. आपका बॉयफ्रेंड भी अपने यार-दोस्तों के साथ कुछ समय बिताना चाहेगा. उसे इतनी आज़ादी दीजिए कि वह रात में अपने दोस्तों के साथ घूमने जा सके, वीडियो गेम खेल सके या चाहे तो 'ब्लू फिल्म' भी देख सके. उसे कुछ समय अपनी तरह से बिताने दीजिए. आख़िर आप भी तो चाहेंगी कि आप कुछ समय अपनी सखियों के साथ गुज़ारें और ऐसे काम करें जो लड़कियाँ आम तौर पर करती हैं, जैसे अपने लिए कपड़े या जूते खरीदना. लड़के तो शॉपिंग से नफ़रत करते हैं, इसलिए आप यह काम अपनी सखियों के साथ कर लें. 

"जब आप अपने बॉयफ्रेंड के साथ बाहर जाती हैं तो ग़ौर कीजिए कि आपकी कौनसी बात उसे अच्छी लगती है, आपके कौनसे कपडे, आपकी लिपस्टिक का कौनसा शेड उसे पसंद है. उसके साथ बाहर जाते वक़्त उसीकी पसंद के अनुरूप श्रृंगार कीजिए. कुछ लड़के तो आपके लिपग्लॉस का स्वाद या गंध भी पसंद करेंगे. यदि आपके बॉयफ्रेंड को जींस पसंद हैं और वह चाहता है कि आप जींस पहनें, वह आपको तुरंत बता देगा. यदि आपकी स्कर्ट का लंबापन या छोटापन उसे अखरता है तो वह ज़रूर आपसे कहेगा. 

"अपने बॉयफ्रेंड के साथ जब आप किसी पार्टी में जाएँ तो जोंक की तरह उससे चिपटी न रहें. इससे आप 'पज़ेसिव' कहलाई जाएँगी. उसे अपनी पसंद की अन्य लड़कियों के साथ 'डांस' करने दें और आप भी अन्य लड़कों के साथ नाचें. बस, पार्टी का आख़िरी डांस यदि वह आपके साथ करे तो वही काफ़ी है. 

"आपका बॉयफ्रेंड तयशुदा वक़्त पर न आए या आने में उसे कुछ देर हो जाए तो तनिक भी नाराज़ न होइए. आख़िर वह भी एक इंसान है और इंसान गलतियाँ करता है. हो सकता है कि वह आपके पास आने के लिए तैयार हो रहा था कि उसी वक़्त उसकी जींस या पैंट का ज़िपर टूट गया और उसे दूसरे कपड़ों को इस्त्री करनी पड़ गई, जिसकी वजह से उसे आने में देरी हो गई. वह यह सब आपसे नहीं कहेगा, क्योंकि इसे वह अपनी मर्दाना शान के ख़िलाफ़ मानता है. 

"अपने बॉयफ्रेंड को उसकी सिगरेट पीने की आदत को लेकर परेशान न करें. यदि ऐसा करेंगी तो वह आपको छोड़कर किसी और से दोस्ती कर लेगा. जब आपका जन्मदिन आनेवाला हो तो धीरे से उससे कहिए, 'मेरे जन्मदिन का सबसे बढ़िया तोहफ़ा यही होगा कि मैं जिसे चाहती हूँ, वह सिगरेट पीना छोड़ दे.' अपने बॉयफ्रेंड की दाढ़ी या लम्बे बालों के बारे में भी यही नुस्ख़ा आज़मा सकती हैं. "

ऊपर-ऊपर से आधुनिक लगनेवाला यह लेख क्या लड़कियों को दक़ियानूसी बातें सिखाता-सा नहीं लगता?आख़िर वह यही तो कह रहा है कि अपने बॉयफ्रेंड के हर तरह के व्यवहार को सहें, संयम रखें. उससे कुछ कहना भी हो तो इस तरह से कहें कि वह नाराज़ न हो जाए. हाँ, उसकी पसंद का ख़्याल ज़रूर रखें और उसीकी पसंद के अनुरूप कपडे पहनें. यदि ऐसा न करेंगी तो वह आपको छोड़कर किसी और से दोस्ती कर लेगा. क्या यह सलाह उसी सीख की तर्ज़ पर नहीं है जो हमारे यहाँ लड़कियों को आम तौर पर बचपन से ही दी जाती है--जैसे शादी के बाद पति की हर इच्छा पूरी करो, वह चाहे कुछ भी कर ले, उफ़ तक न करो, उसीकी पसंद से पहनो-ओढ़ो, उसीकी पसंद का खाना पकाओ, उसकी कुछ बातें चाहें अच्छी न लगें, उन्हें नजरअंदाज कर जाओ, पतिव्रता बनी रहो--एक आदर्श पत्नी का यही धर्म है. 

और मज़े की बात तो यह है कि अपने आपको आधुनिक बतानेवाली, बम्बई जैसे महानगर से अँग्रेज़ी में प्रकाशित होनेवाली, उच्च और उच्च मध्यवर्गीय शिक्षित परिवारों में पढ़ी जानेवाली एक पत्रिका इस तरह की सामग्री परोस रही है. 

जहाँ यह पत्रिका यह मानकर चल रही है कि किशोरियों का बॉयफ्रेंड तो होना ही चाहिए, वहीं वह किशोरियों के मन में असुरक्षा की यह भावना भी पैदा कर रही है कि बॉयफ्रेंड को संभाल कर रखो वर्ना वह तुम्हें छोड़कर किसी और का हो जाएगा. 

यदि लड़कियों को पश्चिमी आधुनिकता से ही वाक़िफ़ कराना है तो उन्हें बताइए कि पश्चिमी लड़की का रवैया क्या होता है. पश्चिमी लड़की अपने निजत्व पर अपने बॉयफ्रेंड की पसंद को इतना हावी कभी भी नहीं होने देगी कि बस, बॉयफ्रेंड की रुचि के अनुसार ही सजे-धजे. इससे पहले कि उसका बॉयफ्रेंड उसे छोड़कर किसी और से दोस्ती कर ले, वह खुद ही बॉयफ्रेंड को छोड़ देगी. जहाँ पति-पत्नी का एक-दूसरे से सम्बन्ध-विच्छेद आम है, वहाँ बॉयफ्रेंड को छोड़ना कौनसी बड़ी बात है? ऐसा नहीं है कि रिश्तों की टूटन से उन्हें दुःख नहीं होता, लेकिन वहाँ इस तरह की बातों को ज़िंदगी का एक हिस्सा मानकर स्वीकार कर लिया गया है. 

लड़कियों को दब -झुक कर चलने की दक़ियानूसी सीख को आधुनिकता का चमचमाता मुलम्मा चढ़ाकर पेश करने की बजाय क्या यह अच्छा नहीं होगा कि लड़कियों को घर-परिवार और समाज में अपने अधिकारों के प्रति सजग किया जाए और बॉयफ्रेंड की चिंता छोड़ अपने लिए एक सच्चा मित्र तलाश करने की प्रेरणा दी जाए जो हो सकता है आगे जाकर जीवनसाथी बन जाए?