मेरा यह लेख २७ सितम्बर, १९८७ के नवभारत टाइम्स में रविवार्ता के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित हुआ था.
अठारह वर्षीया रूपकँवर दुल्हन के वेश में कितनी सुंदर लग रही थी! सिर से पैर तक गहनों से लदी, नखशिखांत श्रृंगार के साथ. लेकिन वह विवाह की वेदी पर नहीं, अपने पति की चिता पर चढ़ने जा रही थी--उसके साथ जलकर भस्म होने के लिए.
राजस्थान के सीकर जिले के दिवराला गाँव में अभी आठ महीने पहले ही तो रूपकँवर दुल्हन बनकर आई थी. अपने पिता के घर से भरपूर दहेज के साथ. २५ तोला सोना, टेलीविजन, रेडियो, पंखे, फ्रिज... क्या नहीं लाई थी वह अपने साथ! एक सुखी गृहस्थी का सपना आँखों में लिए रूपकँवर ने अपने पति मानसिंह के घर में कदम रखा था. ज़िंदगी अपनी तरह चल रही थी कि अचानक सितम्बर की पहली तारीख़ को मानसिंह को उल्टी -दस्त होने लगे. उसे सीकर के सरकारी अस्पताल में दाखिल कराया गया. लेकिन चार सितम्बर का दिन उसकी ज़िंदगी का आख़री दिन रहा. मानसिंह की मृत्यु के साथ ही रूपकँवर ने सती होने की इच्छा व्यक्त की. उसके परिवारवालों ने न तो इसका विरोध किया और न ही इसकी ख़बर किसीको होने दी.
आज... यदि प्रधानमंत्री के घिसे-पिटे मुहावरे का उपयोग किया जाए तो... जब देश २१वीं सदी में प्रवेश करने को तैयार है तब रूपकँवर द्वारा सदियों पुरानी इस प्रथा का पालन करना कई सवाल खड़े करता है. एक तो यह कि दसवें दर्जे तक पढ़ी रूपकँवर को पति की मृत्यु के बाद सती होने के अलावा और कोई रास्ता क्यों नज़र नहीं आया? दूसरे यह कि उसकी ससुरालवालों ने इसका विरोध क्यों नहीं किया? --इस संदर्भ में कहीं यह दहेज हत्या का दूसरा रूप तो नहीं, या क्या उसकी ससुरालवाले इतने अंधविश्वासी हैं कि बहू की मौत में ही उन्हें अपना पुण्य नज़र आया; या बहू के सती होने में उन्हें अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाने का आसान रास्ता दिख गया? तीसरे यह कि क्या प्रशासन और क़ानून पूरी तरह से अंधे-बहरे हो गए हैं जो रूपकँवर को सती होने से रोक नहीं सके? (पुलिस द्वारा कुछ महिलाओं को सती होने से रोकने की ख़बरें पहले मिली हैं लेकिन यहाँ पुलिस का कहना है कि उन्हें कोई सूचना ही नहीं मिली) और चौथा सवाल उन हज़ारों -हज़ार लोगों को लेकर है जो रूपकँवर का सती होना एक तमाशे की तरह देखते रहे, लेकिन उसे रोकने के लिए कुछ नहीं कर सके.
इन सवालों के स्पष्ट जवाब शायद कभी न मिल पाएँ लेकिन इनका उठना निरर्थक नहीं है. इनके जवाब ढूँढ़ने की कोशिश की जाए तो आधुनिकता का दंभ भरनेवाले समाज का वह बदबूदार पिछवाड़ा दिखता है जो हर तरह की गंदगी से पटा पड़ा है और जिसे साफ़ करना कोई नहीं चाहता.
हो सकता है, विधवा की कलंकित ज़िंदगी जीना रूपकँवर को रास न आता नज़र आया हो और उसने अपने ज़िंदगी का अंत कर लेने में ही अपनी भलाई समझी हो. रूपकँवर के मामले में बात करते हुए सीकर जिले के ही एक ग्रामीण ने कहा, 'हमारे समाज में विधवा को कुलच्छनी माना जाता है. उसे नंगे पैर चलना पड़ता है, ज़मीन पर सोना पड़ता है. वह घर से बाहर नहीं निकल सकती और किसी पुरुष से बात भी नहीं कर सकती. ऐसी ज़िंदगी जीने से तो अच्छा हुआ वह मर ही गई.'
रूपकँवर के पिता भी कोई अनपढ़, गँवार ग्रामीण नहीं हैं. जयपुर में उनकी एक ट्रांसपोर्ट एजेंसी है. लेकिन अपनी बेटी के सती होने पर वह कहते हैं, 'रूपकँवर के त्याग ने हमारे दोनों ख़ानदानों को अमर बना दिया है. मेरी बेटी तो अब 'देवी' बन गई है जिसकी हज़ारों श्रद्धालु पूजा करेंगे.' वह प्रसन्न हैं कि उनकी बेटी ने उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाई है.
जब सती हो गई महिला के परिवारवाले, उसकी ससुरालवालों के साथ उसके पिता भी अपनी बेटी के बलिदान को लेकर इतने प्रसन्न हैं, तो इस घटना के लिए क़ानून और प्रशासन को दोष देने से पहले एक बार सोचना पड़ता है. अदालत का क़ानून और सरकार का निर्देश जनता के लिए क्या मायने रखता है, यह तो उसी समय पता चल गया कि जब सती के १३ दिनों बाद होने वाले चूंदड़ी महोत्सव को सरकारी आदेश की धज्जियाँ उड़ाते हुए किसी त्योहार की-सी धूमधाम से मनाया गया. राजस्थान के कुछ महिला संगठनों की अपील पर राजस्थान उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को निर्देश दिया था कि रूपकँवर की चूंदड़ी चढ़ाने की रस्म पर समारोह न होने दिया जाए. इसके बावजूद लाखों लोगों की मौजूदगी में रूपकँवर की चिता पर सुहाग की प्रतीक चूंदड़ी चढ़ाई गई. यह चूंदड़ी चार हज़ार एक सौ रूपए की बताई जाती है और इसे रूपकँवर के मायकेवाले लाए थे. इस समारोह का तय समय से दो घंटे पहले ही हो जाना, समारोह के दौरान सती-स्थल पर पुलिस की गैर-मौजूदगी, समारोह स्थल पर गाँव के स्वयंसेवकों का हुक्म और राजपूत नौजवानों का चिता के आसपास नंगी तलवारें लिए लगातार परिक्रमा करना यह बताता है कि जिस बात को आम आदमी का जबरदस्त समर्थन हो, उसे रोकना क़ानून और सरकार के बस की बात नहीं।
लेकिन इस बात को आम आदमी का इतना जबरदस्त समर्थन मिलने के क्या कारण हो सकते हैं? इसका जवाब ढूँढ़ने के लिए हमें उन मान्यताओं, विश्वासों, अंधविश्वासों की पड़ताल करनी होगी जो सदियों से हमारे यहाँ बच्चों को घुट्टी में पिलाए जाते हैं. हमारे यहाँ मृत्यु को जीवन का अंत न मानकर मोक्ष प्राप्त करने की ओर बढ़ाया गया एक कदम माना जाता है. यहाँ महिलाएँ साल-दर-साल एक विशेष दिन व्रत रखती हैं कि अगले जन्म में भी उन्हें यही पति मिले. यहाँ यह माना गया है कि मृत्यु के बाद की दुनिया में भी व्यक्ति को वही सब मिले जो इस जन्म में उसे सुख-शांति देता रहा है. पति के साथ जल मरने को पतिव्रत्य का महानतम उदाहरण माना गया. इन 'अलौकिक' कारणों के साथ कुछ लौकिक कारण भी समय-समय पर इससे जुड़ते गए जैसे कि घर-परिवार में विधवा के साथ होनेवाले व्यवहार को देखकर कुछ महिलाओं ने सती होने का निर्णय किया हो या जैसे मुग़लों के भय से, आत्मसम्मान की रक्षा की ख़ातिर राजपूत महिलाओं ने जौहर (सामूहिक सती) किया.
इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि सती एक सामाजिक मान्यता है. हमारे यहाँ के किसी शास्त्र में इस प्रथा का उल्लेख नहीं है. ऋग्वेद और अथर्ववेद में ज़रूर ऐसी प्रथा के संकेत मिलते हैं. गरुड़पुराण और भागवतपुराण में भी सती का उल्लेख है. लेकिन हर घर में सती प्रथा का पालन होता था, ऐसा नहीं है. बल्कि समय-समय पर इसे रोकने की कोशिश भी होती रही. अकबर और जहांगीर ने सती प्रथा को दबाया. फिर आगे चलकर अंतिम पेशवा बाजीराव और मराठा महारानी अहिल्याबाई ने भी लोगों में सती प्रथा के खिलाफ जागरूकता फैलाई. अंत में राजा राममोहन राय के प्रयासों के फलस्वरूप लॉर्ड विलियम बेंटिंक ने सन १८२९ में सती प्रथा पर निषेध लगा दिया.
लेकिन एक बात ग़ौर करने लायक है --सती प्रथा को सिर्फ़ हिन्दू मान्यताओं ने ही जन्म दिया हो--ऐसा नहीं है. एशिया के अलावा अमेरिका, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया में भी मृत व्यक्ति के साथ उसकी पत्नी/पत्नियाँ, ग़ुलाम, क़ैदी और घोड़े जलाए या दफ़नाए जाते थे. लेकिन भारत में इसे जैसा सामाजिक समर्थन मिला, उसके चलते निषेध लगने के १५८ साल बाद आज भी सती हो जाने के इक्का-दुक्का उदाहरण मिल ही जाते हैं.
इसी सिलसिले में रूपकँवर का सती होना हमें फिर एक बार अपनी सामाजिक व्यवस्था को जाँचने के लिए कहता है--ऐसी व्यवस्था जहाँ अभी यह माना जाता है कि पति के बाद पत्नी का कोई स्थान नहीं है--न परिवार में, न समाज में. जब तक यह मान्यता नहीं बदलती, तब तक कोई विधवा चाहे घुट-घुटकर जीने को मजबूर की जाए, चाहे पति के साथ जलकर मर जाए--शायद कोई फ़र्क नहीं पड़ता.